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________________ प्रस्तावना भरणइ कुमारू एहु रइ लुद्धउ, वसरण महावि तुम्महि छुद्धउ । रोसन्ते रिउहि यच्छु वि गण सुरगइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ ।' प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा बहुत प्रांजल, सुबोध,सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है और इसमें पुष्पदन्तादि महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थगौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं। इसे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वागण से जम्बूस्वामी के निर्वाण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्रायः एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बूस्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोनर जीवन की पावन झांकी ही चरित्र-निष्ठा का एक महान आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। इनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चोरकर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सो योद्धानों के साथ महान् तपस्वियों में अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यतरादि कृत महान् उपसर्गों को संघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान् आदर्श उपस्थित करता है। उस समय मगध देश का शासक राजा |णिक था, जिसे विम्बसार भी कहते हैं। उसकी राजधानी 'रायगिह' (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमान में लोग राजगिर के नामसे पुकारते हैं। ग्रन्थकर्ता ने मगधदेश और राजगृह का वर्णन करते हुए, और वहां के राजा श्रेशिाक का परिचय देते हुए, उसके प्रतापादि का जो संक्षिप्त वर्णन किया है, उसके तीन पद्य यहां दिये जाते हैं.---- 'चंड भुजदंड खंडिय पयंडमंडलियमंडली वि सड्ढें । धारा खंडण भीयव्व जयसिरी वसइ जम्म खग्गंके ।।१।। रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइ न संगरे सामी। इय जस्स पयावद्योसणाए विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ जस्स रक्खिय गोमडलस्स पुरुसुत्तमस्स पद्धाए। के केसवा न जाया समरे गय पहरगा रिउगो ॥३॥ अर्थात् जिनके प्रचंड भुजदंड के द्वारा प्रचंड मांडलिक राजाओं का समूह खंडित हो गया है, (जिसने अपनी भुजाओं के बल से मांडलिक राजाओं को जीत लिया है) और धारा-खंडन के भय से ही मानो जयश्री जिसके खङ्गाङ्क में बसती है। राजा श्रेणिक संग्राम में युद्ध से संत्रस्त कायर पुरुषों का मुख नहीं देखते, रे, रे कायर पुरुषो ! भाग जामो'-इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन से ही शत्रु दूर भाग जाते हैं। गोमन्डल (गायों का समूह) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णु के द्वारा रक्षित रहता है । उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी पुरुषों में उत्तम राजा श्रेणिक के द्वारा रक्षित रहता है, राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु-सुभट हैं, जो मत्यु को प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्णु) के आगे आयुध रहित होकर आत्म समर्पण नहीं किया।' १. दिगम्बर जैन परम्परा में जम्बूस्वामी के पश्चात् विष्णु, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु थे पांच श्रुत केवली माने जाते हैं, किन्तु श्वेताम्बरी परम्परा में प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, आर्यसंभूतिविजय, पौर भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियों का नामोल्लेख पाया जाता है । इनमें भद्रबाहु को छोड़कर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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