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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह ग्रन्थका कथा भाग बहुत ही सुन्दर, सरस और मनोरंजक है और कवि ने उसे काव्योचित सभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का यत्न किया है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है ५६ कथासार जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नामका देश है उसमें श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में बैठे हुए थे कि वनमाली ने चलकर विपुलाचल पर्वत पर महावीर स्वामी के समवसरण आने की सूचना दी । श्रेणिक सुनकर हर्पित हुआ और उसने सेना प्रादि वैभव के साथ भगवान का दर्शन करने के लिए प्रयारण किया । श्रेणिक ने समवसरण में पहुंचने से पूर्व ही अपने समस्त वैभव को छोड़ कर पैदल समवसरण में प्रवेश किया और वर्द्धमान भगवान को प्रणाम कर धर्मोपदेश सुना । इसी समय एक तेजस्वी देव आकाश मार्ग से प्राता हुआ दिखाई दिया। राजा श्रेणिक द्वारा इस देव के विषय में पूछे जाने पर गौतम स्वामी ने बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी चार देवांगनाओं के साथ यहाँ वन्दना करने के लिए श्राया है । यह आज से ७ वें दिन स्वर्ग से चयकर मध्यलोक में उत्पन्न होकर उसी मनुष्य भव से मोक्ष प्राप्त करेगा । राजा श्रेणिक ने इस देव के विषय में विशेष जानने की अभिलाषा व्यक्त की, तब गौतम स्वामी ने कहा कि - 'इस देश में वर्द्धमान नाम का एक नगर है । उसमें वेदघोष करने वाले, यज्ञ में पशुवलि देनेवाले, सोमपान करने वाले, परस्पर कटु वचनों का व्यवहार करने वाले, अनेक ब्राह्मरण रहते थे। उनमें अत्यन्त गुणज्ञ एक ब्राह्मणदम्पत्ति श्रुतकण्ठाव रहता था । उसकी पत्नी का नाम सोमशर्मा था। उनसे दो पुत्र हुए थे । भवदत्त और भवदेव । जब दोनों की आयु क्रमशः १८ और १२ वर्ष हुई, तब आर्यवसु पूर्वोपार्जित पापकर्म के फलस्वरूप कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अग्नि में जल मरा । सोमशर्मा भी अपने प्रिय विरह से दुःखित होकर चिता में प्रवेश कर परलोकवासिनी हो गई । कुछ दिन बीतने के पश्चात् उस नगर में 'सुधर्म' मुनिका श्रागमन हुआ। मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, भवदत्त ने धर्म का स्वरूप शान्त भाव से सुना, भवदत्त का मन संसार में अनुरक्त नहीं होता था, अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि बनने की अपनी अभिलाषा व्यक्त की। और वह दिगम्बर नुनि हो गया । और द्वादशवर्ष पर्यन्त तपश्चरण करने के पश्चात् भवदत्त एक बार संघ के साथ अपने ग्राम के समीप पहुंचा। और अपने कनिष्ठ भ्राता भवदेव को संघ में दीक्षित करने के लिए उक्त वर्धमानग्राम में श्राया । उस समय भवदेव का दुर्मर्षण और नागदेवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो रहा था। भाई के श्रागमन का समाचार पाकर भवदेव उससे मिलने आया, और स्नेहपूर्ण मिलन के पश्चात् उसे भोजन के लिये घर में ले जाना चाहता था परन्तु भवदत्त भवदेव को अपने संघ में ले गया और वहां मुनिवर से साधु दीक्षा देने को कहा । भवदेव असमंजस में पड़ गया, क्योंकि उसे विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय - सुखों का आकर्षण जो था, किन्तु भाई की उस सदिच्छा का अपमान करने का उसे साहस न हुआ । और उपायान्तर न देख प्रवज्या (दीक्षा) लेकर भाई के मनोरथ को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात् १२ वर्ष तक संघ के साथ देशविदेशों में भ्रमण करता रहा । एक दिन अपने ग्राम के पास से निकला । उसे विषय चाह ने प्राकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का स्मरण करता हुआ एक जिनालय में पहुंचा, वहां उसने एक प्रजिका को देखा, उससे उन्होंने अपनी स्त्री के विषय में कुशल वार्ता पूंछी । श्रर्जिका ने मुनि के चित्त को चलायमान देखकर उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह आपकी पत्नी मैं ही हूँ । आपके दीक्षा समाचार मिलने पर मैं
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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