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________________ प्रस्तावना ७ भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयम का अनुष्ठान करने लगा। अन्त में दोनों भाई मरकर सनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हुए और सात सागर की प्रायु तक वहाँ वास किया । भवदत्त स्वर्ग से चयकर पुण्डरीकिनी नगरी में वज्रदन्त राजा के घर सागरचन्द नाम का और भवदेव वीतशोका नगरी के राजा महापद्म चक्रवर्ती की वनमाला रानी के शिवकुमार नाम का पुत्र हुआ। शिवकुमार का १०५ कन्याओं से विवाह हुआ, करोड़ों उनके अंगरक्षक थे, जो उन्हें बाहर नहीं जाने देते थे। पुण्डरीकिनी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर सागरचन्द्र ने देह-भोगों से विरक्त हो मुनिदीक्षा ले ली। त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए वे भाई को सम्बोधित करने वीतशोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया, उसके मन में देह-भोगों से विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ, उससे राजप्रासाद में कोलाहल मच गया। और उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप और व्रतों का अनुष्ठान हो सकता है, दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं, पिता के अनुरोधवश कुमार ने तरुणीजनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से नव प्रकार से ब्रह्मचर्यव्रत का अनुष्ठान किया । और दूसरों से भिक्षा लेकर तप का आचरण किया। और आयु के अन्त में वह विन्द्युन्माली नाम का देव हुआ । वहां दस सागर की आयु तक चार देवांगनाओं के साथ सुख भोगता रहा। अब वही विद्यन्माली यहां आया था जो सातवें दिन मनुष्य रूप से अवतरित होगा। राजा श्रेणिक ने विद्युन्मालो की उन चार देवागनाओं के विषय में पूछा। तब गौतम स्वामी ने बताया कि चंपा नगरी में सूरसेन नामक सेठ की चार स्त्रियां थीं जिनके नाम थे जयभद्रा, सुभद्रा और यशोमती । वह सेठ पूर्वसंचित पाप के उदय से कुष्ट रोग से पीड़ित होकर मर गया, उसकी चारों स्त्रियाँ अर्जिकाएँ हो गईं और तप के प्रभाव से वे स्वर्ग में विद्यन्माली की चार देवियां हुईं। पश्चात् राजा श्रेणिक ने विद्युच्चर के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की। तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश में हस्तिनापुर नामक नगर के राजा विसन्धर और श्रीसेना रानी का पुत्र विद्यचर नाम का था। वह सब विद्याओं और कलाओं में पारंगत था एक चोर विद्या ही ऐसी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्युच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना नहीं छोड़ा। वह अपने पिता के घर में ही पहंच कर चोरी कर लेता था और राजा को सुषुप्त करके उसके कटिहार आदि प्राभूषण उतार लेता था। और विद्याबल से चोरी किया करता था। अब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में आ गया, और वहां कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। गौतम गणधर ने बतलाया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में अर्हद्दास नाम श्रेष्ठिका पुत्र होगा जो उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। यह कथन हो ही रहा था कि इतने में एक यक्ष वहां प्राकर नृत्य करने लगा। राजा श्रेणिक ने उस यक्ष के नृत्य करने का कारण पूछा। तब गौतम स्वामी ने बतलाया कि यह यक्ष अहहास सेठ का लघु भ्राता था। यह सप्तव्यसन में रत था। एक दिन जुए में सब द्रव्य हार गया और उस द्रव्य को न दे सकने के कारण दूसरे जुमारियों ने उसे मार-मारकर अधमरा कर दिया। सेठ प्रहहास ने उसे अन्त समय नमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभाव से वह मर कर यक्ष हुमा । यक्ष सुनकर हर्ष से नृत्य कर रहा है कि उसके भाई सेठ प्रहहास के अन्तिम केवली का जन्म होगा ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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