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प्रस्तावना
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चढ़ाया था । उनके पुत्र साहू सोढु थे, जो जाहड नरेन्द्र और उनके पश्चात् श्रीवल्लाल के मंत्री बने। इनके दो पुत्र थे । रत्नपाल और कण्हड । इनकी माता का नाम, मल्हादे' था । रत्नपाल स्वतन्त्र भौर निरर्गल प्रकृति के थे । किन्तु उनका पुत्र शिवदेव कला और विद्या में कुशल था। जो अपने पिता की मृत्यु के बाद नगर सेठ के पद पर आरूढ़ हुआ था । और राजा श्राहवमल्ल ने अपने हाथ से उसका तिलक किया था । कण्हड (कृष्णादित्य) उक्त राजा ग्राहवमल्ल के प्रधान मंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम 'सुलक्षणा' था, वह बड़ी उदार धर्मात्मा पतिभक्ता और रूपवती थी। इनके दो पुत्र हुए। हरिदेव श्रौर द्विजराज । इन्हीं प्रस्तुत कह की प्रार्थना से कवि ने इस ग्रंथ को वि० सं० संवत् १३१३ कार्तिक कृष्णा ७ सप्तमी गुरुवार के दिन पुष्यनक्षत्र और साहिज्ज योग में समाप्त किया था । कवि ने प्रशस्ति में कृष्णादित्य के परिवार का अच्छा परिचय दिया है।
कवि-परिचय
कवि लक्ष्मण जायव जादव या जायस कुल में उत्पन्न हुआ था। इनके प्रपिता का नाम कोतवाल था, जिनके यश से दिकचक्र व्याप्त था । उनके सात पुत्र थे, अल्हरण, गाहल, साहुल, सोहण, मइल्ल, रतन और मदन । ये सातों ही पुत्र कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले और महामति थे । इनमें से कवि के पिता साहुल श्रेष्ठी थे । ये सातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ पहले त्रिभुवनगिरि या तहनगढ़ के निवासी थे। उस समय त्रिभुवनगिरि जन-धन से समृद्ध तथा वैभव से युक्त था; परन्तु कुछ समय वाद त्रिभुवनगिरि की समृद्धि विनष्ट हो गई थी - उसे म्लेच्छाधिप मुहम्मदगोरी ने बल पूर्वक घेरा डालकर नष्ट-भ्रष्ट कर आत्मसात् कर लिया था । श्रतः कविवर लक्ष्मण त्रिभुवनगिरि से भागकर यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए 'बिलरामपुर' में श्राये । यह नगर आज भी अपने इसी नाम से एटा जिले में वसा हुआ है । उस
१. यादव, जायन या जायस अथवा यदुकुल एक क्षत्रिय कुल है। यदुकुल ही यादव कहलाता था, बिगड़ कर वही जायव या जायस बन गया है। यह प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है, इसी कुल में श्रीकृष्ण और नेमिनाथ तीर्थकर का जन्म भी हुआ था। इस कुल में जैनधर्म के धारक अनेक श्रेष्ठी श्रौर विद्वान, राजा, मंत्री प्रादि हुए हैं। वर्तमान में यह क्षत्रिय वंश वैश्य कुल में परिवर्तित हो गया है ।
२. यह स्थान वयाना से १४ मील और करोली से उत्तर-पूर्व २४ मील की दूरी पर अवस्थित है । इसे
तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि के नाम से उल्लेखित किया जाता था; क्योंकि इसे त्रिभुवनपाल नाम के राजा ने बसाया था। जो सूरसेन वंश का था, यह त्रिभुवनगढ़ ही अपभ्रष्ट होकर बाद में 'तहनगढ़' कहा जाने लगा । त्रिभुवनपाल के पिता का नाम 'तहनपाल' था, जिसका समय १०४३ ईस्वी था और उसके पुत्र त्रिभुवनपाल या तहनपाल का समय सन् १०७५ हो सकता है। जिस तरह पिता ने विजयगढ़ ( वयाना) या श्रीपथ वसाया था उसी प्रकार पुत्र ने तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि वसाया था । मुहम्मद गौरी ने इस पर सन् ११६६ (वि० सं० १२५३) में अधिकार किया था। मुसलमानी तवारीख 'जुलमासीर में हसन निजामी ने लिखा है कि हिजरी सन् ५७२ (वि०सं० १२५२ ) में मुहम्मदगौरी ने तहनगढ़ पर प्राक्रमण कर अधिकार कर लिया था । उस समय वहां कुमारपाल नाम का राजा राज्य करता था । कुमारपाल सं० १२१० या १२११ के प्रास-पास गद्दी पर बैठा था । जब गौरी ने इसे अधिकृत किया तब वहाँ के निवासी हिन्दु सभ्य परिवार नगर छोड़कर यत्र-तत्र भाग गए। उनके साथ जैनी लोग भी भाग गए। उस समय यह नगर प्रत्यधिक सम्पन्न था, और वहाँ पर मूर्तिपूजा का बड़ा जोर था । अतः यहाँ बड़ा अन्याय एवं प्रात्याचार किया गया। गौरी ने यहां का शासक वहरुद्दीन तुमरीन या