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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
वहां उसकी सागरदत्त से भेंट हुई। सागरदत्त उसी समय व्यापार के लिये विदेश जाने वाला था, अवसर देख जिनदत्त भी उसके साथ हो गया और वह सिंहल द्वीप पहुंच गया। वहां के राजा की पुत्री श्रीमती का विवाह भी उसके साथ हो गया। जिनदत्त ने उसे जैनधर्म का उपदेश दिया। जिनदत्त प्रचुर धनादि सम्पत्ति को साथ लेकर स्वदेश लौटता है, परन्तु सागरदत्त ईर्षा के कारण उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता है और स्वयं उसकी पत्नी से राग करना चाहता है । परन्तु वह अपने शील में सुदृढ़ रहती है । वे चम्पा - नगरी पहुंचते हैं श्रौर श्रीमती चम्पा के 'जिन चैत्य' में पहुंचती है। इधर जिनदत्त भी भाग्यवश बच जाता है और मरिणद्वीप में पहुंचकर वहां के राजा अशोक की राजकुमारी शृङ्गारमती से विवाह करता है । कुछ दिन बाद सपरिवार चम्पा श्रा जाता है। वहां उसे श्रीमती और विमलमती दोनों मिल जाती हैं । वहां से वह सपरिवार वसंतपुर पहुंचकर माता-पिता से मिलता है । वे उसे देखकर बहुत हर्षित होते हैं। इस तरह जिनदत्त अपना काल सुखपूर्वक बिताता है। अंत में मुनि होकर तपश्चरण द्वारा कर्म, बंधन का विनाशकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है ।
कवि ने इसमें काव्योचित अनुप्रास, अलंकार और प्राकृतिक सौंदर्य का समावेश किया है । किन्तु भौगोलिक वर्णन की विशेषता भोर शब्द योजना सुंदर तथा श्रुति-सुखद है' |
कवि ने अपने से पूर्वर्ती अनेक जैन- जैनेतर कवियों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है - अकलंक, चतुर्मुख, कालिदास, श्रीहर्ष, व्यास, द्रोण, बारण, ईशान, पुष्पदंत, स्वयंभू प्रौर वाल्मीकि । '
एक दिन अवसर पाकर श्रीधर ने लक्ष्मरण से कहा कि हे कविवर तुम जिनदत्तचरित्र की रचना करो, तब कवि ने श्रीधर श्रेष्ठी की प्रेरणा एवं अनुरोध से जिनदत्तचरित्र की रचना की हैं। और उसे वि० सं० १२७५ के पूसवदी षष्ठी रविवार के दिन बनाकर समाप्त किया था ।
दूसरी कृति 'अणुवयरयरणपईव' है, जिसमें ८ संधियां और २०६ पद्धडिया छन्द हैं, जिनकी श्लोक संख्या ३४०० के लगभग है। ग्रंथ में सम्यग्दर्शन के विस्तृत विवेचन के साथ श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है। श्रावकधर्म की सरल विधि और उसके परिपालन का परिणाम भी बतलाया गया है । ग्रंथ की रचना सरस है । कवि ने इस ग्रंथ को 8 महीने में बनाकर समाप्त किया है । .
कवि ने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना रायवद्दिय नगर में निवास करते हुए की थी, वहां उस समय चौहान वंश के राजा ग्राहवमल्ल राज्य करते थे । उनकी पट्टरानी का नाम ईसरदे था, ग्राहवमल्ल ने तात्कालिक मुसलमान शासकों से लोहा लिया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। किसी हम्मीर वीर ने उनकी सहायता भी की थी ।
कवि के श्राश्रयदाता कण्ह का वंश 'लम्बकंचुक या लमेचू' था । इस वंश में 'हल्ला' नामक श्रावक नगर श्रेष्ठी हुए, जो लोकप्रिय और राजप्रिय थे । उनके पुत्र अमृत या श्रमयपाल थे जो राजा अभय पाल के प्रधान मंत्री थे । उन्होंने एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसकी शिखर पर सुवर्ण कलश
१. णिक्कलंकु प्रकलंकु चउम्मुहो, कालिदासु सिरिहरिसु कयसुहो ।
वत्र विलासु कइवासु प्रसरिसो, दोणु वाणु ईसाणु सहरिसो । पुप्फयंत सुसयंभु भल्लउ, वालमीउ समदं सुरमिल्लउ ।
- जिणदत्तचरित, १-६
२. राजा ग्राहवमल्ल की वंश पम्परा चन्द्रवाड नगर से बतलाई गई है। चौहान वंशी राजा भरतपाल उनके पुत्र भ्रभयपाल । उनके जाहड, उनके श्री बल्लाल के माहवमल्ल हुए। इनके समय में राजधानी 'रायaft' या रायभा हो गई थी। चन्द्रवाड और रायवद्दिय दोनों ही नगर यमुनातट पर बसे हुये थे ।