SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ६७ देखने में नहीं श्राया । उस समय श्रनहिलवाड़ा के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था इनके बाद बघेल वंश की शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठित किया है। इनका राज्य सं० १२३६ से १२३९ तक बतलाया जाता है। संवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय बहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से पूर्व ही चालुक्य वंश की एक शाखा महीकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित होगी, जिसकी राजधानी गोधा थी । इस सम्बन्ध में और भी अन्वेषरण करने की आवश्यकता है जिससे यह पता चल सके कि इस वंश की प्रतिष्ठा गोधा मैं कब हुई' । ये तीनों ही ग्रन्थ अप्रकाशित हैं, उन्हें प्रकाश में लाने का प्रयत्न होना चाहिए। और कवि के अन्य ग्रन्थों की खोज करना जरूरी है । १२वीं प्रशस्ति 'पुरंदरविहारण कहा की है, जिसका परिचय ११ वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है । १३वीं और १८वीं प्रशस्तियाँ 'जिनदत्तचरित' और 'अणुवयरयरणपईव' की हैं। जिनके कर्त्ता कवि लाखू या लक्ष्मण हैं । प्रस्तुत जिनदत्तचरित्र में छह संधियां हैं और जो चार हजार श्लोकों में निबद्ध हैं । जिसमें जीवदेव और जीवंयशा श्रेष्ठी के सुपुत्र जिनदत्त का चरित प्रति है । कवि की यह रचना एक सुन्दर काव्य है । इसमें प्रादर्श प्रेम को व्यक्त किया गया है । कवि काव्य शास्त्र में निष्णात विद्वान् था । ग्रंथ का यमकालंकार युक्त श्रादि मंगल पद्य कवि के पाण्डित्य का सूचक है । सप्पय-सर- कलहंस हो, हियकलहंस हो, कलहंस हो सेयं सवहा । भमि भुवरण कलहंस हो, गविवि जिरण हो जिरायत्त कहा ।। अर्थात् - 'मोक्ष रूपी सरोवर के मनोज्ञ हंस, कलह के अंश को हरने वाले, करिशावक ( हाथी के बच्चे) के समान उन्नत स्कंध और भुवन में मनोज्ञ हंस, श्रादित्य के समान जिनदेव की वंदना कर जिनदत्त की कथा कहता हूँ ।' ग्रंथ कर्त्ता ने इस ग्रंथ में विविध छन्दों का उपयोग किया है। ग्रंथ की पहली चार संघियों में कवि ने मात्रिक और वर्णवृत्त दोनों प्रकार के निम्न छन्दों का प्रयोग किया है - विलासिरणी, मदनावतार, चित्तंगया, मोत्तियदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, श्रारणाल, वस्तु, खंडय, जंभेट्टिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमारिया, पोमणी, चच्चर, पंचचामर, गराच, तिभं गिरिणया, रमणीलता, समाणिया, चित्तया भमरपय, मोरणय, और ललिता श्रादि । इन छन्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट पता चलता है कि अपभ्रंश कवि छन्द विशेषज्ञ होते थे । प्रस्तुत चरित्र में मगध राज्यान्तर्गत वसन्तपुर नगर के राजा शशिशेखर और उसकी रानी मयना सुन्दरीके कथनके अनन्तर उस नगरके श्रेष्ठी जीवदेव और जीवंयशाके पुत्र जिनदत्त का चरित्र अङ्कित किया गया है । वह क्रमश: बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त कर अपने रूप-सौंदर्य से युवति-जनों के मन को मुग्ध करता है - और अङ्ग देश में स्थित चम्पानगर के सेठ की सुन्दर कन्या विमलमती से उसका विवाह हो जाता है । विवाह के पश्चात् दोनों वसन्तपुर ग्राकर सुख से रहते हैं । 14 जिनदत्त जुआरियों के चंगुल में फंसकर ग्यारह करोड़ रुपया हार गया । इससे उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी धर्मपत्नी की हीरा -माणिक श्रादि जवाहरातों से प्रति कंचुली को नौ करोड़ रुपये में जुआरियों को बेच दिया। जिनदत्त ने धन कमाने का बहाना बनाकर माता-पिता से चम्पापुर जाने । और कुछ दिन बाद धर्मपत्नी को अकेली छोड़ जिनदत्त दशपुर ( मन्दसौर) या गया । 8. History of Gujrat in Bombay Gageteer Vol I श्राज्ञा
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy