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________________ मैन ग्रंप प्रशस्ति संग्रह चरित मूलरूप में प्रकाशित नहीं हुमा, और न पनसेन का पार्श्वपुराण ही प्रकाशित हो सका है। प्रतः ये दोनों रचनाएं अपने मूलरूप में प्रकाशित होनी चाहिए। ११वी, १२वीं और १३वीं प्रशस्तियां क्रमशः 'छम्मोवएस', 'पुरंदर विहारणकहा' और 'रोमिपाहचरिउ' की हैं। जिनके कर्ता कवि अमरकीति हैं। प्रस्तुत षट्कर्मोपदेश में १४ संधियां और २१५ कडवक हैं, जो २०५० श्लोक प्रमाण संख्या को लिए हुए हैं । कवि ने इस ग्रंथ में गृहस्थों के षट्कर्मों का-देव पूजा गुरु-सेवा, स्वाध्याय (शास्त्राभ्यास) संयम (इन्द्रियदमन) और षट्-काय (जीव रक्षा) इच्छा निरोध रूप तप, तथा दानरूप षट्-कर्मों का-कथन दिया हुआ है । और उसे विविध कथानों के सरस विवेचन द्वारा वस्तु तत्त्व को स्पष्ट किया गया है। दूसरी से नौवीं संधि तक देव-पूजा का सुन्दर विवेचन दिया गया है, और उसे नूतन कथा रूप दृष्टांतों के द्वारा सुगम तथा ग्राह्य बना दिया गया है । दशवीं संधि में जिन पूजा पुरंदर विधि कथा दी गई है और उसकी विधि बतलाकर उद्यापन विधि को भी अङ्कित किया है। शेष ११ वीं से से लेकर १४वीं संधि तक शेष कर्मों का विवेचन दिया हुआ है। ग्रंथ में कवि ने इससे पूर्ववर्ती अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है। गेमिणाहचरिउ, महावीरचरिउ, जसहरचरिउ, धर्मचरित टिप्पण, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेश चूड़ामणि, और झारणपईव (ध्यान प्रदीप)। कवि ने इस ग्रंथ की रचना गोध्रा' में चालुक्य वंशी राजा वंदिग्गदेव के पुत्र कण्ह या कृष्ण नरेन्द्र के राज्य में संवत् १२४७ के भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन समाप्त की थी। दूसरी प्रशस्ति 'पुरंदरविधान कथा' की है, जो षट्कर्मोपदेश का ही एक अंश है । इस कथा को भी कवि ने अम्बाप्रसाद के निमित्त से बनाया है। प्रस्तुत कथा में पुरंदरव्रत का विधान बतलाया गया है। यह व्रत किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष में किया जा सकता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अष्टमी तक प्रोषधोपवास करना चाहिए । इस व्रत का फल मनोरथ प्राप्ति, दारिद्रय विनाश, धन प्राप्ति और व्यसनादि का परित्याग है। तीसरी कृति 'नेमिनाथ चरित' है ग्रन्थ में २५ सन्धियां हैं जिनकी श्लोक संख्या छह हजार पाठ सौ पच्चारणवे है। इसमें जैनियों के २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का, जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे, जीवन परिचय दिया गया है। इस ग्रंथ को कवि ने संवत् १२४४ में भाद्रपद शुक्लाचतुर्दशी को समाप्त किया था। यह प्रति सं० १५१२ की लिखी हुई है और सोनागिर भट्टारकीय शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। ___ भट्टारक अमरकीर्ति काष्ठासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संध के विद्वान मुनि चन्द्रकीति के शिष्य एवं अनुज थे। इनकी माता का नाम 'चचिणी' और पिता का नाम 'गुणपाल' था । इनकी गुरु परम्परा में अमितगति द्वितीय हुए, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७० है, उनके शिष्य शान्तिषेण हये, शांतिषण के अमरसेन, अमरसेन के श्रीषेण और श्रीषेण के चन्द्रकीति, जिनका समय सं० १२१९ के लगभग है और अमरकीति का संवत् १२४४ से १२४७ । ग्रंथकर्ता ने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में 'महीयडु' देश के गोध्रा नगर में चालुक्य वंशीय कण्ह या कृष्ण का राज्य बतलाया है । उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वंश का राज्य था, जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी; परन्तु इतिहास में वंदिगदेव और उनके पुत्र कृष्ण नरेन्द्र का कोई उल्लेख मेरे १. गोध्रा गुजरात का एक छोटा-सा नगर है, जो बड़ौदा से गिरनार जी जाते समय रास्ते में मिलता है। यहां पहले दिगम्बर मन्दिर था अब नहीं है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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