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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
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समय बिलरामपुर में सेठ विल्हरण के पौत्र और जिनघर के पुत्र श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कवि को मकान आदि की सुविधा प्रदान की । यह कविवर के परम मित्र बन गए। साहू विल्हरण का वंश प्रा या पुरवा था, और श्रीधर उस वंशरूपी कमलों को विकसित करनेवालें सूर्य थे । और इस तरह क वर उनके प्रेम और सहयोग से वहां सुखपूर्वक रहने लगे। वहां कुछ समय बिताने के पश्चात् वे चौहानवं राजा अभयपाल की राजधानी 'रायवद्दिय' रपरी या रायभा में प्राकर रहे और वहां अभ पाल के प्रधान मंत्री कृष्णादित्य की प्रेरणा से सं० १३१३ में 'अणुवय रयरणपईब की रचना की । क अपने इतने लम्बे जीवन में अन्य कितनी रचनाएं रचीं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अन्वेषण करने कवि की अन्य रचनाओं का भी पता चल सकेगा ।
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तुरारिक को नियुक्त किया था। नगर व्यापारियों से रिक्त हो गया था । अतएव जगह-जगह से बड़ेव्यापारियां को बुलाया गया था। खुरासान से भी लोग वसने को प्राये थे । प्रस्तुत ग्रंथकर्ता और उन परिवार भागकर बिलरामपुर जिला एटा में प्राये । वहां के निवासी सेठ विल्हण के पौत्र भौर जिन के पुत्र श्रीधर सेठ ने इन्हें ठहरने के लिए मकान दिया। कवि ने जिनदत्तचरित्र में त्रिभुवनगिरि विनष्ट होने का उल्लेख सं० १२७५ में किया है किन्तु त्रिभुवनगिरि के विनाश का समय 1196 A. (वि० सं० १२५३ है । इससे स्पष्ट है कि कवि सं० १२५३ में वहां से भागे थे ।
- देखो, प्राकिलाजिकल सर्वे रिपोर्ट भा० २०
श्वेताम्बरीय खरतरगच्छ की प्रधान गुर्वावली में भी त्रिभुवनगिरि का उल्लेख है और जिनदत्तसूरि द्व कुमारपाल राजा को सम्बोधित करने तथा वहां के शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया घटना को सं० १२०३ से पूर्व की बतलाया है। साथ ही सं० १२०३ में अजमेर में फाल्गुन सुदी ६ दिन दीक्षित जिनचन्दसूरि सं० १२१४ में त्रिभुवनगिरि पधारे और वहां उनके द्वारा शान्तिनाथ मन्दिर सुवर्णदण्ड, कलश और ध्वजारोपणादि कार्यों का उल्लेख किया है, गणिनी हेमदेवी को प्रवत्तिनी प्रदान करने का भी निर्देश है। ( ततस्त्रिभुवनगिरी, प्रतिबोधितस्तत्र कुमारपालो नाम राजा । कुतर प्रचुरतर यतिजन विहारः । प्रतिष्ठितो भगवान् शान्तिनाथ देवः । ततः सः ( जिनदत्तसूरि सं० १२ अजयमेरी फाल्गुन सुदी ६ जिनचन्द्रसूरि दीक्षा) । - ( खतरगच्छ युग प्रधान गुर्वावली पृ० १६ - २ सं० १२१४ श्री जिनचन्द्रसूरिभिस्त्रिभुवनगिरी श्री शान्तिनाथ शिखरे सज्जनमनोमन्दिर प्रमोदारोपणा सौवर्णदण्ड कलश ध्वजारोपणं महता विस्तरेण कृत्वा हेमदेवी गणिन्या प्रवर्तिनी पदं दत्वा... । — खरतर गच्छयुगप्रधान गुर्वावली पृ० २० ये सब उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्त्यनीय हैं। क्योंकि गुर्वावली के अनुसार कुमारपाल का राजा होना सं० १२०३ से पूर्ववर्ती है । अतः उसके सम्बोधन की घटना सं० १२०३ से पहले की है।
पूर्वार्ध में उसकी समृद्धि पुनः
इसके पश्चात् भी त्रिभुवनगिरि सम्पन्न हो गया जान पड़ता है। संम्भव है वहाँ पुनः उस वंश का शा हो गया हो । विक्रम की १३ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में या १४ वीं के गई थी और वहाँ अनेक जैनमुनि और विद्वान निवास करने लगे थे। माथुरसंघ के विद्वान उदयमुनि प्रशिष्य और भ० बालचन्द्र मुनि के शिष्य विनयचन्द्र ने कुमारपाल के भतीजे प्रजयपाल नरेश के विहा बैठकर चुनड़ी रास बनाया था और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी रची थी। उन्होंने उसी नगर की तल में बैठकर 'निर्भर पंचमी कथारास' का भी निर्माण किया था। इससे स्पष्ट है कि मुसलमान शासकं समय में भी जैन विद्वान अपने साहित्य की श्री वृद्धि करते रहे हैं।