SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १४ वीं प्रशस्ति 'सुलोयणाचरिउ' की है, जिसके कर्ता गणिदेवसेन हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की २८ धियों में भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार की धर्मपत्नी सुलोचना का, जो हस्तिनापुर के राजा अकपन और सुप्रमा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है । सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी, इसके स्वयंवर में अनेक देशों के बड़े-बड़े राजागण आए थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए । उनका हृदय विक्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे । स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना । परिणाम स्वरूप चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति क्रुद्ध हो उठा, और उसने इसमें अपना अपमान समझा। अपने अपमान का बदला लेने के लिए अर्ककीर्ति और जय में युद्ध होता है और अन्त में जय की विजय होती है। उस युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है भडो को वि खग्गेण खग्गं खलंतो, रणे सम्मुहे सम्मुहो पाहणंतो। भडो को वि वारणेण वाणो दलंतो, समुद्धाइ उदुद्धरो णं कयंतो। भडो को वि कोंतेण कोंतं सरंतो, करे गाढ चक्को अरी सं पहुंतो। भडो को वि खंडेहिं खंडी कयंगो, लड़त्तं ण मुक्को सगा जो अहंगो। भडो को वि संगाम भूमि घुलंतो, विवण्णोह गिद्धवली पोयअंतो। भडो को वि धाएण रिणव्वट्टि सीसो, असिवावरेई अरीसाण भीसो॥ भडो को वि रत्तप्पवाहे तरंतो, तप्पएरणं तडि सिग्घ पत्तो। भडो को वि मुक्का उहे वन्न इत्ता, रहे दिण्णयाउ विवरणोह इत्ता ॥ भडो को वि इत्थी विसाणेहि भिण्णो, भडो कोवि कंठोट छिण्णो णिसण्णो ।। घत्ता-तहिं अवसरि णिय सेण्णु पेच्छिबि सर जज्जरियउ । धावइ भुयतोलंतु जउ बकु मच्छर भरियउ॥ ६-१२ युद्ध के समय सुलोचना ने जो कुछ विचार किया था, उसे ग्रंथकार ने गूंथने का प्रयत्न किया है। सुलोचना को जिन मन्दिर में बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महंतादिक पुत्र, बल और तेज सम्पन्न पांच सो सैनिक शत्र पक्ष ने मार डाले हैं, जो तेरी रक्षा के लिए नियुक्त किये गये थे। तब वह अपनी आत्म-निंदा करती हई विचार करती है कि यह संग्राम मेरे कारण ही हुआ है जो बहुत से सैनिकों का विनाशक है। प्रतः मुझे ऐसे जीवन से कोई प्रयोजन नहीं। यदि युद्ध में मेघेश्वर (जयकुमार) की जय हो और मैं उन्हें जीवित देख लंगी तभी शरीर के निमित्त आहार करूंगी। इससे स्पष्ट है कि उस समय सुलोचना ने अपने पति की जीवन-कामना के लिए आहार का भी परित्याग कर दिया था। इससे उसके पातिव्रत्य का उच्चादर्श सामने आता है । यथा इमं जंपिऊणं पउत्तं जयेणं, तुमं एह कण्णा मनोहार वण्णा । सुरक्खेह गुणं पुरेणेह ऊणं, तउ जोइ लक्खा प्रणेया असंखा । सुसत्था वरिण्णा महं दिक्ख दिण्णा, रहा चारु चिंधा गया जो मयंधा। महंताय पुत्ता बला-तेय जुत्ता, सया पंच संखा हया वैरि-पक्खा । पुरीए णिहाणं वरं तुंग गेहं, फुरतीह पीलं मणीलं करालं । पिया तत्थ रम्मो वरे चित्त कम्मे, परंभीय चिंता सुउ हुल्लवत्ता। रिणयं सोययंती इणं चिंतवंती, अहं पाव-यम्मा अलज्जा अधम्मा।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy