________________
७२
जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह महं कज्ज एवं रणं अज्ज जायं,.... बहूणं गराणं विणासं करेणं, महं जीविएणं ण कज्ज प्रणेणं ।
जया हंसताउ स-मेहेसराई, सहे मंगवाई इमो सोमराई । घत्ता-ए सयलवि संगामि, जीवियमाण कुमार हो । पेच्छमि होइ पवित्ति, तो सरीर पाहार हो। इस तरह ग्रंथ का विषय और भाषा सुन्दर है।
प्रस्तुत ग्रंथ एक प्रामाणिक कृति है; क्योंकि इसे कवि ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के सूलोचनाचरित (प्राकृत गाथा बद्ध) का पद्धड़िया आदि छन्दों में अनुवाद मात्र किया है। ग्रंथ गत चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है। कवि ने इस काव्य-ग्रन्थ का निर्माण राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन किया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती बाल्मीकि व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, बाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदंत और भूपाल नामक कवियों का उल्लेख किया है ।
ग्रन्थ कर्ता ने ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है। वे निबडिदेव के प्रशिष्य और विमलसेन गणधर के शिष्य थे। इस ग्रन्थ की रचना मम्मलपुरी में हुई है। राक्षस सम्वतसर साठ सम्बतों में ४६ वां है । ज्योतिष की गणनानुसार एक राक्षस सम्वतसर १०७५ A. D. वि० सं० ११३२ २६ जुलाई को श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। दूसरा सन् १९३५ (वि० सं० १३७२) में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी और बुधवार पड़ता है। इन दोनो समयों में २४० वर्ष का अन्तर है । इनमें पहला समय (वि० सं० ११३२) ही इस ग्रन्थ की रचना का सूचक ज्ञात होता है, ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है।
१५वीं प्रशस्ति 'पजुष्णचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि सिद्ध और सिंह हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ एक अप्रकाशित खण्ड काव्य है । जिसमें १५ सन्धियां हैं और जिनकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार से कम नहीं है। इसमें यदुवंशी श्रीकृष्ण के सुपुत्र प्रद्युम्नकुमार का जीवन-परिचय गुंफित किया गया है, जो जैनियों में प्रसिद्ध २४ कामदेवों में से २१वें थे और जिन्हें उत्पन्न होते ही पूर्व जन्म का वैरी एक राक्षस उठाकर ले जाता है और उसे एक शिला के नीचे रख देता है। पश्चात् कालसंवर नाम का एक विद्याधर उसे ले जाता है और उसे अपनी पत्नी को सौंप देता है। वहां उसका लालन-पालन होता है तथा वहां वह अनेक प्रकार की कलाओं की शिक्षा पाता है । उसके अनेक भाई भी कलाविज्ञ बनते हैं, परन्तु उन्हें इसकी चतुरता रुचकर नहीं होती, उनका मन भी इससे नहीं मिलता, वे उसे अपने से दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं । पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं। अतएव वह कुमार भी उनसे सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलाओं से संयुक्त होकर वैभव सहित अपने माता-पिता से मिलता है। उस समय पुत्र-मिलन का दृश्य बड़ा ही करुणजनक और दृष्टव्य है। वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध होकर सांसारिक सुख भी भोगता है और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकर कि १२ वर्ष में द्वारावती का विनाश होगा, तब भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्त्र्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है ही। रस अलंकार और अनेक छन्द भी उसकी सरसता में सहायक हैं ।
ग्रंथ-प्रशस्ति का अध्ययन करने से यह स्पष्ट प्रतिभाषित होता है कि इस ग्रंथ के दो रचयिता विद्वान् जान पड़ते हैं। उनमें ग्रंय की प्रथम रचना करने वाले विद्वान् का नाम सिद्ध कवि है। जो पंपाइय