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________________ प्रस्तावना ७३ और देवरण का पुत्र था । उसका यह ग्रन्थ किसी तरह खंडित हो गया था और उसी अवस्था में कवि सिंह को प्राप्त हुआ और सिंह कवि ने उसका समुद्धार किया था । कवि सिद्ध ने यह ग्रंथ कब रचा, यह प्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता । समुद्धारक सिंह कवि ने भी उसका समय नहीं दिया, परन्तु वह अन्य प्रमारणों से निश्चित हो जाता है । कवि सिंह ने ग्रन्थ को विविध छन्दों में गूंथ कर उसे और भी सरस तथा मनोहर बना दिया है । कवि स्वयं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और देशी इन चार भाषाओं में निपुरण था और उसका कुल गूजर था । यह एक प्रतिष्ठित कुल है जिसमें अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो चुके हैं । कवि के पिता का नाम 'बुध रल्हरण' था' । और वह प्राकृत संस्कृत रूप भाषाद्वय में निपुण थे— कवि के पिता विद्वान् थे, भोर संभवतः उन्होंने भी कोई ग्रन्थ बनाये हों, पर वे अभी उपलब्ध नहीं हैं। माता का नाम जिनमती था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी । कवि के तीन भाई और भी थे, जिनका नाम शुभंकर, गुरणप्रवर और साधारण या । ये तीनों भाई धर्मात्मा और सुन्दर शरीर वाले थे । कवि सिंह ने इस ग्रन्थ को अन्य किसी की सहायता के बिना ही बनाया था, उसने अपने को भवभेदन में समर्थ, शमी तथा कवित्व के गर्व सहित प्रकट किया है । कविता करने में जिसकी कोई समानता न कर सके ऐसा असाधारण काव्य - प्रतिभावाला विद्वान् व्यक्त किया है। साथ ही वस्तु के सार-प्रसार के विचार करने में सुन्दर बुद्धिवाला, समीचीन, विद्वानों में अग्रणी, सर्व विद्वानों की विद्वता का सम्पादक, सत्कवि था, उसी ने आनन्दप्रद इस काव्य-ग्रन्थ का निर्माण किया है। १. "पुण पंपाइय देवण गंदणु, भवियण जणयणणयणानंदणु । बुहयण जणपय पंकय छप्पर, भणइ 'सिद्ध' पणमिय परमप्पउ || " X X X २. कइ सिद्ध हो विरयंत हो विगासु, संपत्तउ कम्मवसेण तासु ।' 'पर क परवव्वं विहडंतं जेहि उद्धरियं । - पज्जुण्णचरिउ प्रशस्ति ३. जातः श्री निजधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थं सर्वप्रियो, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छ्री सिंहनामा कविः । पुत्रो रल्हण पंडितस्य मतिमान् श्री गुर्जरागोमिह दृष्टि - ज्ञान - चरित्र भूषिततनुवंशे विशालेऽवनी ॥ पञ्जुण्णचरिउ की १३वीं संधि के प्रारंभ का पद्य । ४. 'साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकवेः प्रद्युम्नकाव्यस्य यः' कर्ताऽभूद् भवभेदनैकचतुरः श्री सिंहनामा शमी साम्यं तस्य कवित्व सहितः को नामजातोऽवनो श्रीमज्जैन मतप्रणीत सुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः || ” 'सारासारविचारचारुधिषणः सद्धीमतामप्रणी जतः सत्कविरत्रसर्वविदुषां वैदुष्य संपादकः । येनेदं चरितं प्रगल्भमनसा शांतः प्रमोदास्पदं, प्रद्युम्नस्य कृतं कृतीवतां जीयात् स सिंहः क्षितौ ।' - चौदहवीं संधि के अन्त में - वीं संधि के अन्त में
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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