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जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह साथ ही कवि ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को छंद अलङ्कार और व्याकरण शास: से अनभिज्ञ, तर्कशास्त्र को नहीं सुनने वाला और साहित्य का नाम भी जिसके कर्णगोचर नहीं हुअा, इतन तक व्यक्त किया है और लिखा है कि ऐसा कवि सिंह सरस्वती देवी के प्रसाद को प्राप्त कर सत्कवियों। अग्रणी मान्य तथा मनस्वी प्रिय हुआ है। गुरु परम्परा
कविवर सिंह के गुरु मुनि पुङ्गव भट्टारक अमृतचन्द्र थे, जो तप, तेजरूपी दिवाकर, और व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर (समुद्र) थे। तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने परमत को झंकोलित कर दिय या-डगमगा दिया था जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे, जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रागे काम देव दूर से ही वंकित (खंडित) होने की आशंका से मानो छिप गया था-वह उनके समीप नहीं पा सकत' था-इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
प्रस्तुत भट्टारक अमृतचंद्र उन प्राचार्य अमृतचंद्र से भिन्न हैं, जो प्राचार्य कुंदकुन्द के समयसारादि प्राभृतत्रय के टीकाकार और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रंथों के रचयिता थे। वे लोक में 'ठक्कुर' उपनाम से प्रसिद्ध थे । इनकी समस्त रचनाओं का जैन समाज में बड़ा समादर है। यह विक्रम की दशवीं शताब्दी के विद्वान थे। उनकी गुरु परम्परा यद्यपि प्रज्ञात है। परन्तु पट्टावली में उनका समय सं० ६६२ दिया हुआ है, वह प्रायः ठीक जान पड़ता है।
किन्तु उक्त भट्टारक अमृतचंद्र के गुरु माधवचंद्र थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कषायों के विजेता थे और जो उस समय 'मलधारी देव' के नाम से प्रसिद्ध थे, और यम तथा नियम से सम्बद्ध थे। 'मलधारी' एक उपाधि थी जो उस समय के किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी। इस उपाधि के धारक अनेक विद्वान् प्राचार्य हो गए हैं । वस्तुतः यह उपाधि उन मुनि पुंगवों को प्राप्त होती थी, जो दुर्धर परिषहों, विविध घोर उपसर्गों और शीत-उष्ण तथा वर्षा की वाधा सहते हुए भी कभी कष्ट का अनुभव नहीं करते थे। और पसीने से तर-बतर शरीर होने पर धूलि के कणों के संसर्ग से मलिन शरीर को साफ न करने तथा पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी हंसते हुए सह लेते थे। ऐसे ऋषि पुंगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किए जाते थे।
५. 'छन्दोऽलंकृति-लक्षणं न पठितं नानावि तर्कागमो,
जातं हंत न कर्ण गोचरचरं साहित्यनामाऽपि च । सिंहः सत्कविरग्रणीः समभवत् प्राप्य प्रसादं परं, वाग्देव्याः सुकवित्वजातयशसा मान्यो मनस्विप्रियः ॥' ६. तासु सीसु तव-तेय-दिवायरु, वय-तव-णियम-सील-रयणाया। तक्क-लहरि-झकोलिय-परमउ, वर वायरण पवर पसरिय पउ । जासु भुवण दूरंतर वकिवि, दिढ़ पच्छण्णु मयणु प्रासंकिवि । अभयचंद नामेण भडारउ, सो विहरंतु पत्तु बुह सारउ ॥
-पज्जुण्णचरिउ प्रशस्ति ७. देखो, 'अमृतचंद्र का समय' शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ ।