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________________ प्रस्तावना महाकाव्य साहित्यकारों ने 'सर्गबन्धो महाकाव्यं'-'इस लक्षणानुसार महाकाव्य का विभाजन अनेक सर्गों में किया है । कथा का सर्गबद्ध होना आवश्यक है, सर्गों की संख्या का भी वहां निर्देश किया गया है। संस्कृत महाकाव्यों में कथा अनेक आश्वासों (सर्गों) में विभक्त मिलती हैं; किन्तु प्राकृत में कुछ काव्य ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें पद्य-कथा को आश्वासों में विभक्त नहीं किया गया। 'गउडवहो' में विभिन्न विषयों और घटनाओं को कुलकों और महाकुलकों में बांधा गया है। 'लीलावइकहा' आदि कुछ काध्य सर्गों या आश्वासों मैं विभक्त नहीं हैं। इस तरह प्राकृत महाकाव्यों में आश्वासों और स!का लोप होगया। प्राकृत काव्यों की इस स्वच्छन्द प्रवृत्ति का प्रभाव संस्कृत महाकाव्यों पर भी पड़ा है। अपभ्रश महाकाव्य में कथा वस्तु अनेक सन्धियों में विभक्त होती है और प्रत्येक सन्धि अनेक कडवकों के मेल से बनती है. संधियों की संख्या का वहाँ कोई नियम नहीं है। धवल कवि के 'हरिवंश' में १२२ संधियां हैं और पुष्पदन्त के महापुगण में १०२ सन्धियां दी हुई हैं। अपभ्रंशभाषा के महाकाव्यों में यद्यपि वर्णनीय विषय को संस्कृत महाकाव्यों के अनुसार ही दिया है, किन्तु वे काव्योचित मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन करने में असमर्थ रहे हैं । इन महाकाव्यों में अपभ्रंश की कुछ परम्परागत रूढियों का भी पालन होता रहा है । अपभ्रंश के प्रायः सभी महाकाव्य सन्धियों में विभक्त हैं। किन्तु स्वयंभू के दोनों महाकाव्य काण्डों में विभक्त होकर भी संधियों में रखे गए हैं। यह पद्धति बहुत पुरानी हैं। संस्कृत भाषा के काव्यों और ग्रन्थों में इसका प्रचलन था, प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थराजवातिक ग्रन्थ को अध्यायों में विभक्त करके भी उन्हें आह्निकों में विभाजित किया है। महाभारत में यह क्रम अध्यायों में पर्वो या सर्गों के रूप में मिलता है, और रामायण में काव्यों को सर्गों में विभाजित कर दिया गया है । एक एक अध्याय में अनेक प्राह्निक मिलते हैं। ____कविराज विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में भ्रमवश यह लिख दिया कि-अपभ्रंश महाकाव्यों में सर्गों की जगह कुडवक या कडवक होते हैं । पर ऐसा नहीं है। अपभ्रंश महाकाव्यों में संधि या सर्ग अनेक कडवकों के समूह से बनती है । कडवकों का प्रयोग वहाँ पद के रूप में हुआ है । १५ से ३० कडवकों या इससे अधिक की एक संधि होती है। इसी कारण सन्धियों का आकार छोटा या बड़ा देखने को मिलता है । अपभ्रंश काव्यों में प्रत्येक कडवक के प्रारम्भ में और अन्त में एक पत्ता रहता है। इस नियम का निर्वाह कुछ काव्यों में पूर्ण रूप से मिलता है और कुछ में कम । अपभ्रंश काव्यों की कडवक-योजना का प्रभाव हिन्दी भाषा के प्रबन्ध काव्यों पर पड़ा है। रामचरित मानस और पद्मावत आदि में कुछ चौपाइयाँ रखकर दोहा या कहीं कहीं हरिगीतिका छन्द रक्खा गया है। कवि लक्ष्मण का 'णेमिणाहचरिउ' रड्ढा छन्द में रचा गया है और सुदंसणचरिउ पद्धडिया छन्द के अतिरिक्त विविध छन्दों से विभूषित है। अब्दुलरहमान के सन्देशरासक में कडवकबद्धता नहीं है । पुष्पदन्त के काव्यों में नाना छन्दों का प्रयोग हुआ है। पर वे सब कडवकबद्ध ही हैं। संस्कृत के कुछ महाकाव्यों में मंगलाचरण और वस्तुनिर्देश के बिना भी काव्यारंभ देखा जाता है, यह परम्परा परवर्ती काव्यों में नही है। अपभ्रंश भाषा के प्रायः सभी काव्य मंगलाचरण और वस्तु निर्देश आदि की परम्परा को लिये हुए हैं, इसी का हिन्दी के काव्यों में अनुसरण किया गया है। १. सर्गबन्धो महाकाव्यं-साहित्यदर्पण ६ परि० ३१५ । २. अपभ्रंशनिबद्धेऽस्मिन्सर्गाः कुडवकाभिधाः । तथापभ्रंश योग्यानि छन्दांसि विविधान्यपि ।। -साहित्यदर्पण ६-३२७
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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