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________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह प्रबन्धकाव्य विश्व साहित्य में संभवतः सबसे प्रथम भारतवर्ष में ही काव्य-ग्रन्थ लिखे गये। इस देश में प्रबन्ध काव्य लिखने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। इससे पहले पुराणादि ग्रन्थ ही लिखे जाते थे। ये पुराण प्रबन्ध-काव्यात्मक रचना हैं। प्रबन्धकाव्यों में इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार वर्णन, भावाभिव्यंजना और संवाद ये चार अवयव होते हैं । कथा में पूर्वापर क्रमबद्धता आवश्यक है इसके विना कोई काव्य प्रबन्धकाव्य नहीं कहला सकता । अपभ्रंश भाषा में प्रबन्ध काव्य बहुसंख्या में लिखे गए उपलब्ध हैं, उनमें पूर्वापर क्रमबद्धता के साथ कथा के मार्मिक स्थलों की परख होना जरूरी हैं, इससे प्रबन्धकाव्य की रचना में सफलता मिलती है । जैन अपभ्रश प्रबन्ध काव्यों में वस्तुव्यापार वर्णन तो सुन्दर है ही; किन्तु संवाद इतने प्रभावक और आकर्षक होते हैं कि उनसे इन प्रबन्ध काव्यों के निर्माताओं की सहृदयता का सहज ही आभास मिल जाता है । इन प्रबन्धकाव्यों का विषय प्रायः राम और कृष्ण की कथा ही रहा है। संस्कृत प्रबन्धकाव्यों में नायक के चरित-चित्रण के अतिरिक्त उषाकाल, सूर्योदय, चन्द्रोदय, संध्या, रजनी, नदी, पर्वत, समुद्र, ऋतु, युद्ध और यात्रा आदि दृश्यों का वर्णन सालंकार किया गया है' । ऐसा करते हुए भी कवियों ने उनमें अनेक चमत्कारों को भी दिखलाया है। ये सब कथन अल्प या बहुत मात्रा में सभी भाषाओं के प्रवन्धकाव्यों में उपलब्ध होते हैं। हाँ, प्राकृत प्रवन्धकाव्यों में कुछ नई प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं । उनमें अनेक स्थलों पर ग्राम्य जीवन के सुन्दर चित्र अंकित मिलते हैं। अपभ्रंश प्रबन्ध काव्यों में ऐसे अनेक वर्णन मिलते हैं जो जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। संस्कृत भाषा में हमें दो प्रकार के काव्य मिलते हैं। उनमें कुछ काव्य ऐसे हैं जिनमें कथा का विस्तार, घटनाबाहुल्य और उसके साथ ही साथ प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन प्रचुरता से किया गया है और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें कथा बहुत ही संक्षिप्त है, किन्तु प्राकृतिक वर्णनों के विस्तार में प्रचुर काव्यत्व दृष्टि गोचर होता है। प्राकृत में भी इन दोनों शैलियों के दर्शन होते हैं । यदि सेतु-बन्ध में रामकथा का विस्तार है, तो गउडवहो में गौड राजा के वध का कथन अति संक्षिप्त (३-४ पद्यों) में ही दिया गया है और अन्य काव्योचित वर्णनों का पर्याप्त रूप में स्थल-स्थल पर समावेश है। अपभ्रंश के महाकाव्यों में भी हमें वर्ण्य विषय का पर्याप्त विस्तार मिलता है। कथा-पात्रों के अलौकिक चमत्कारों, भवान्तरों की कथाओं और पौराणिक आख्यानों के कारण कथा का विस्तार अधिक वढ़ गया है, जिससे कथा-सूत्र के समझने में कठिनाई हो जाती है। अनेक कथाओं और अवान्तर उप कथाओं में उलझे हुए अनेक स्थलों में यद्यपि सुन्दरता के दर्शन होते हैं, फिर भी उन में कवित्व प्रचुर परिमारण में प्रकट नहीं हो सका है और कविता में विषय की अपेक्षा कवित्व का विस्तार कम ही हुआ है। १. सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातमध्याह्नमृगयाशैलर्तृवास गराः ।। संभोगविप्रलम्भौ च मुनि स्वर्गपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः ॥ वर्णनीया यथायोग्यं सांगोपांगा प्रमी इह । साहित्यदर्पण ६ परि० से ३२२-३२४
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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