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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि भामह ने काव्यालंकार में कथा का जो लक्षण निर्दिष्ट किया है तदनुसार कथा दो व्यक्तियों की बातचीत से प्रारम्भ होती है। किन्तु आख्यायिका में नायक अपनी कथा स्वयं कहता है। जैन अपभ्रंश काव्यों में प्रायः सभी कथानक राजा श्रेणिक के प्रश्न और गौतम गणधर के उत्तररूप में प्रारम्भ होते हैं। कथा का नायक संस्कृत महाकाव्यों में कथा का नायक धीरोदात्त गुणवाला आदर्श व्यक्ति देवता या सद्वंश क्षत्रिय माना गया है, किन्तु जैन कवियों द्वारा निर्मित अपभ्रंश-काव्यों में कुछ में क्षत्रियवंशोद्भव तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र आदि पुराण-पुरुषों को माना गया है और कुछ में आदर्श व्यक्ति राजथं ष्ठी, वणिक या राजपुत्र को माना गया है, क्योंकि जैन कवियों को रचना का उद्देश्य प्रात्मविकास बतलाना रहा है, इसी से नायक क्षत्रिय न होते हुए भी आदर्श गुरणों वाला कुलीन व्यक्ति स्वीकृत किया गया है। उसकी धर्मपरायणता और लोकोपकारिता आदि का चित्रण नैतिक चरित्र के विकास को लिए हए है । नायक के जीवन की अच्छी-बुरी परिगति का कथन करते हुए तपश्चर्या, व्रताराधना, और सत्कर्मों द्वारा जीवन के अन्तिम लक्ष्य-पूर्ण स्वातंत्र्य की प्राप्ति का निर्देश करना ही कवि का उद्देश्य है और नायक के उदात्तचरित को यथार्थता के मापदण्ड से नापा गया है; ऐसा होने पर उसमें हीनता की कल्पना करना उचित नहीं जान पड़ता। केवल रूढ़ि वश क्षत्रिय को नायक बना कर महा-काव्यों के औचित्य का पालन नहीं हो सकता। यह तो संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचायक है। जीवन का आदर्श चारित्र-गुरण पर ही निर्भर होता है। महाकाव्यों में वर्ण्य विषय (१) महाकाव्य में कथा का अंकों, स! या अधिकारों आदि में विभाजित होना । (1) नायक का तीर्थकर, चक्रवर्ती या अन्य महापुरुष होना । (३) शृंगार, वीर और शान्तादिरस की प्रधानता रहना। (४) कथा वस्तु का ऐतिहासिक या लोक प्रसिद्ध होना। (५) धर्मादि पुरुषार्थचतुष्टय में से किसी एक पुरुषार्थ की प्रमुखता का होना । (६) काव्य का नामकरण किसी प्रधान घटना, काव्यगतवृत्त, कवि का नाम, अथवा नायक के नाम के आधार पर होना। (७) सर्ग, संधि या अधिकार के अन्त में छन्द का बदल जाना और किसी एक ही अध्याय में विविध छन्दों का पाया जाना । (८) सर्गों या अध्यायों की संख्या का ८ से अधिक होना। (६) काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण, आशीर्वचन, सज्जन दुर्जन-वर्णन और प्रतिपाद्य कथा की पृष्ठभूमि का निर्देश । १. ... ..तत्रैको नायक. सुरः । सदंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः । साहित्य दर्पण ६ परि० ३१६ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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