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प्रस्तावना
इस तरह कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानव का यह शरीर कितना घिनावना और शिराओं-स्नायुओं से बंधा हुआ अस्थियों का एक ढांचा या पोट्ठल मात्र है। जो माया और मद रूपी कचरे से सड़ रहा है, मल पुंज है, कृमि-कीटों से भरा हुआ है, पवित्र गंध वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मांस और रुधिर से पूर्ण चर्मवृक्ष से घिरा हुआ है-चमड़े की चादर से ढका हुआ है, दुर्गन्धकारक है, प्रांतों की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है, कलुषता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नहीं है । चमड़ी उतार देने पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल विन्दु तथा सुर धनु के समान अस्थिर और विनश्वर है। ऐसे घृणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा ? यह विचार ही ज्ञानी के लिए वैराग्यवर्द्धक है।' कवि परिचय
स्वयंभू कुल से ब्राह्मण थे परन्तु जैनधर्म पर आस्था हो जाने के कारण उनकी उस पर पूरी निष्ठा एवं भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारुतदेव और माता का नाम पद्मिनी था।' स्वयं कवि ने अपने छन्द ग्रंथों में मारुतदेव का उल्लेख किया है। बहुत सम्भव है कि वे कवि के पिता ही हों। पुत्र द्वारा पिता की कृति का उल्लिखित होना आश्चर्य की बात नहीं है।
कवि की तीन पत्नियां थीं। ग्रादित्य देवी जिसने अयोध्या कांड लिपि किया था। दूसरी पामिअव्वा, (अमृताम्बा) जिसने पउमचरिउ के विद्याधरकांड की २० संधियाँ लिखवाई थीं और तीसरी सुअव्वा, जिसके पवित्र गर्भ से 'त्रिभुवन स्वयंभू' जैसा प्रतिभा सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो अपने पिता समान ही विद्वान् और कवि था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहीं मिलता। कविवर का शरीर दुबला-पतला और उन्नत था। उनकी नाक चपटी और दांत विरल थे।
कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरीय भारत के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्र व का मंत्री रयडा धनंजय मान्यखेट ले गया था। राजा ध्रुव का राज्य काल वि० सं० ८३७ से ८५१ तक रहा है। पउमचरिउ में स्वयंभू देव ने अपने को धनंजय के आश्रित बतलाया है और रिट्ठणेमिचरिउ में धवलइया के आश्रित । और त्रिभुवन स्वयंभू ने अपने को वंदइया के आथित ।
धनंजय, धवलइया और वंदइया ये तीनों ही पिता पुत्र आदि के रूप में सम्बद्ध जान पड़ते हैं। उनका कवि के ग्रंथ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है। समय-विचार
कवि ने ग्रन्थ में अपना कोई समय नहीं दिया है। परंतु पद्मचरित के कर्ता रविषेण का स्मरण जरूर १. देखो, रिट्ठणेमिचरिउ ५४-११ । २. पउमिणि जणणि गम्भ संभूरा, मारुयएव-रूप-अणुराएं ।
-पउमचरिउ प्रशस्ति ३. आइच्च एवि पडिमोवमायें प्राइच्चम्बियाए ।
बीउ अउज्झा-कंड सयंभू घरिणीय लेहवियं ॥ संधि ४२ ४. सव्वे वि सुमा पंजर सुअव्व पडिसक्खराइं सिक्खंति ।
कइरा अस्स सुनो सुनव्व-सुइ-गब्भ संभूप्रो॥ ५. अइ तणुएण पईहर गत्तै छिटवरणासे पविरल दंतें ।
-पउम० प्रशस्ति ६. हिन्दी काव्य-धारा पृ० २३