SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह किया है। प्राचार्य रविपेरग ने पद्मचरित को वीर निर्वाण सं० १२०३ वि० सं० ७३३ में बनाकर समाप्त किया है । अतः स्वयंभू वि० सं० ७३३ के बाद किसी समय हुए हैं। श्रद्धेय प्रेमी जी ने लिखा है किस्वयंभू ने 'रिट्ठणेमिचरिउ' में हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संधीय जिनसेन का उलेख नहीं, किया हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण से छूट गया हो, या उन्हें लिखना स्वयं याद न रहा हो। रिट्ठणेमिचरिउ का ध्यान से समीक्षण करने पर या अन्य सामग्री से अनुसंधान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जाएगा कि ग्रन्थ कर्ता ने उसकी रचना में उसका उपयोग किया या नहीं। भ० यशः कीर्तिके उद्धार काल से पूर्वकी कोई प्रति १५वीं शताब्दी की लिखी हुई कहीं मिल जाय तो उक्त समस्या का हल शीघ्र हो सकता है। स्वयंभू के पुत्र चिभुवन स्वयंभू ने 'रिट्टणेमिचरिउ' की १०४वीं संधि में प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के जो ७० के लगभग पूर्ववर्ती कवियों के नाम गिनाये हैं। उनमें जिनसेनाचार्य और गुणभद्राचार्य का भी नामोल्लेख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है देविल, पंचाल, गयन्द, ईश्वर, गोल, कंठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलुय (लोलुक) वन्धुदत्त, हरिदत्त, दोल्ल, वारण पिंगल, कलमियंक, कुलचन्द्र, मदनोदर, गौड, श्री संघात, महाकवितुंग, चारुदत्त, कद्दड, (रुद्रट) रंज्ज, कविल अहिमान, गुणानुराग, दुग्गह, ईसान, इंद्रक, वस्त्रादन, पारायण, महट्ट, सीहाय, कीर्तिरण, पल्लवकित्ति, गुगिद्ध, गणेश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, वेयाल, (वेताल) विसयड, गाग, पण्डगत्त, सुग्रीव, पतंजलि, वरसेन, मल्लिपेण, मधुकर, चतुरानन (चउमुख) सँघसेन, बंकुय, वर्द्ध मान, सिद्धसेन, जीव या जीवदेव, दयावरिंद, मेघाल, विलालिय पुण्डरीक, वसुदेव, भीउय कुण्डरीक, दृढ़मति, गृहत्थि, भावक्ष, यक्ष, द्रोण पणभद्र, श्रीदत्त, धर्मसेन, जिनसेन, दिनकर, गाग, धर्म, गुरणभद्र, कुशल, स्वयंभूदेव, शीलभद्र, वीरवंदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, गागदेव और भवनंदि ।' १. पह दइ सन्नभाव कइ दविल पंचाल गइंधया । ईसर णील कंठाभरण मोहाकलस इंधया । लोलुय बंधुयत्त हरियत्त दोल्ल वाणाय पिंगला । वडहड कल मयंक मयणोउर गयउड विक्क दुज्जला ।। सिरि संघाय तुंग महकइ परसेय चारु दत्तया । बाडा संगु अक्खवहि बंधण रुद्दडरज्ज इंदया । वत्थायण वि यह हरि कुटि गुण सुदुवि मड्ढया । णारायण महट्ट सीहप्प कित्ति रणं दियट्ठया ॥ कविल गुणाणुराय दुग्गह दीसाणहिमाण अंचया । जिरणयत्त (त्ता) कलंक करविस पल्लव कित्तडि गुणिद्धया । मण मोहावरुद्ध धम्मीयगर गणेश भासडा ।। पिसुण सुयउ मणेह गोविंदकइ वेयांलविसयडा । णवि णागह पंडणत सुग्गीव पडंजलिय वरसेणया । करि कण्णय कण्णा संदीस मणोहर मल्लिसेगया। महुयर मूलहट्ट चउराणण महकइसंघसेणया ॥ वेकुय वद्धमाण संघायरियाहिय सिद्धसेणया । जीददयावरिंद मेधाल विलालिय पंडरीया ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy