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दीक्षा,
अनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह परस्पर का वैमनस्य, युधिष्ठिर का जुआ खेलना और पराजित होना, द्रोपदी का चीर हरण, तथा पांडवों के बारह वर्ष के वनवास आदि का विस्तृत वर्णन है।।
तृतीय कांड में ६० संधियां हैं कौरव-पांडवों के युद्ध वर्णन में पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय आदि का सुन्दर चित्रण किया गया है और उत्तर कांड की २० संधियों में कृष्ण की रानियों के भवांतर, गजकुमारका निर्वाण, द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारिका-दाह, कृष्ण-निधन, बलभद्र-शोक, हलधर
कमार का राज्य लाभ. पांडवों का गह-वास. मोह-परित्याग. दीक्षा, तपश्चरण और उपसर्ग इन. तथा उनके भवांतर प्रादि का कथन. भगवान नेमिनाथ के निर्वाण के बाद ७७वीं संधि के पश्चात दिया हुआ है। रिट्टेणेमिचरिउ की संधि पुष्पिकानों में स्वयंभू को धवलइया का आश्रित, और त्रिभुवन स्वयंभू को बन्दइया का आश्रित बतलाया है।
मत्स देश के राजा विराट का साला कीचक जिस समय सबके सामने द्रोपदी का अपमान करता हैं । कवि कल्पना द्वारा उसे मूर्तिमान बना देता है।
यम दूत की तरह कीचक ने द्रोपदी का केश-पाश पकड़कर खींचा और उसे लात मारी। यह देख कर राजा युधिष्ठिर मूर्छित हो गए। भीम रोष के मारे वृक्ष की ओर देखने लगे किस तरह मारें। किन्तु युधिष्ठिर ने पैर के अंगूठे से उन्हें मना कर दिया। उधर पुर की नारियां व्याकुल हो कहने लगी कि इस दग्ध शरीर को धिक्कार है इसने ऐसा जघन्य कार्य क्यों किया ? कुलीन नारियों का तो अब मरना ही हो गया, जहां राजा ही दुराचार करता हो वहां सामान्य जन क्या करेंगे ? .
सो तेण विलक्खी हूवएण, अणुलग्गें जिह जम दूयएण । विहुरे हि धरेवि चलणेहि हय, पेक्खंतहं रायहं मुच्छ गय । मणि रोस पवट्टिय वल्लभ हो, किर देइ दिट्ठ तरु पल्लव हो । मरु मारमि मच्छु स-मेहुराउं, पट्टवमि कयंत हो पाहुणउं । तो तव-सुएण प्रारुट्टएण, विरिणवारिउ चलणंगुट्ठएण । पोसारिउ विनोयरु सण्णियउ, पुर-बर गरिउ आदण्णियउ । धि धि दढ सरीरें काई किउ, कुल-जायह-जायहं मरणथिउ । जहि पहु दुच्चारिउ समायरइ, नहिं जण तम्मण्णु काई करइ ।
-संधि २८-७ इसी संधि के १५वें कडवक में द्रोपदी के अपमान से क्रुद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध (कुश्ती) का वर्णन भी सजीव हुआ है
रण में कुशल भीम और कीचक दोनों एक दूसरे से भिड़ गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बल वाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने-अपने ओंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे। नेत्र गुंजा (चिरमटी धुंधची) के समान लाल हो गये थे। दोनों के वक्षस्थल आकाश के समान विशाल और दोनों के भुजदंड परिघि के समान प्रचंड थे।
३ "तो भिडिवि परोधप रण कुसल, विण्णि वि णयणाय सहस्स-बल । विण्णि वि गिरि तुंग-सिंग सिहर, विण्णि वि जल हरख गहिर गिर । वि णिवि दट्टोट्ट रुतु वयण, विण्णिवि गुंजाहल सम-णयण । विण्णिवि णयल णिरु-वच्छ थल, विण्णिवि परिहोवम-भुज-जुयल । -रिट्ठणेमिचरिउ २८-१५