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प्रस्तावना
विलाप किसे अश्रु विगलित नहीं करता ' । इसी तरह रावण की मृत्यु होने पर विभीषण और मन्दोदरी के विलाप का वर्णन केवल पाठकों के नेत्रों को ही सिक्त नहीं करता; प्रत्युत रावण-मन्दोदरी और विभीपण के उदात्त भावों का स्मरण कराता है। इसी तरह अंजना सुन्दरी के वियोग में पवनंजय का विलापचित्रण भी संसार को विचलित किये बिना नहीं रहता।
___ग्रन्थ में ऋतुओं का कथन तो नैसर्गिक है ही, किन्तु प्रकृति के सौंदर्य का विवेचन भी अपूर्व हुआ है। नारी-चित्रण में राष्ट्र कूट नारी का चिनगा बड़ा ही मृन्दर है।
कवि ने राम और सीता के रूप में पुरुष और नारी का रमरणीय और स्वाभाविक चित्रण किया है। पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जैसा उदात्त और याथातथ्य चित्रण सीता की अग्नि परीक्षा के समय हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ग्रंथ में सीता के अमित धैर्य, साहम और उदान गुणों का वर्णन नारी की महत्ता का द्योतक है, उसके सतीत्व की आभा ने नारी के कलंक को धो दिया है।
ग्रन्थ का कथा भाग कितना चित्ताकर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। सहस्रार्जुन की जल क्रीड़ा का वर्णन अद्वितीय है। । युद्ध के वर्णन करने में भी कवि ने अपनी कुशलता का परिचय दिया है जिसे पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की पग-ध्वनि कानों में गूंजने लगती है और शब्द योजना तो उनके उत्साह की संवर्द्धक है ही।
ग्रंथ में वोर, शृङ्गार, करुण और शांत रसों का मुख्य रूप से कथन है । वीर रस के साथ शृङ्गार रस की अभिव्यक्ति अपभ्रंश काव्यों में ही दृष्टिगोचर होती है। अलंकारों में उपमा और श्लेप का प्रयोग किया गया है।
दूसरी प्रशस्ति 'रिट्ठोमिचरिउ' (हरिवंश पुराण) की है। जिसमें १५२ सन्धियां और १६३७ कड़वक हैं । इनमें ७७ संधियां स्वयंभू द्वारा रची गई हैं। शेष १३ संधियां स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू की वनाई हुई हैं; किन्तु अंतिम कुछ संधियां खंडित हो जाने के कारण भट्टारक यशः कीतिने अपने गुरु गुणकीति के सहाय से गोपाचल के समीप स्थित कुमार नगर के परिणयार चैत्यालय में उनका समुद्धार किया था और परिणामस्वरूप उन्होंने उक्त स्थानों में अपना नाम भी अंकित कर दिया। ग्रंथ में चार काण्ड हैं यादव, कुरु, युद्ध और उत्तर कांड ।
प्रथम कांड में १३ संधियाँ है। जिनमें कृष्ण जन्म, बाल-लीला विवाह-कथा, प्रद्युम्न आदि की कथाएं और भगवान् नेमिनाथ के जन्म की कथा दी हुई है। ये समुद्र विजय के पुत्र और कृष्ण के चचेरे भाई थे। दूसरे कांड में १६ संधियां हैं, जिनमें कौरव-पांडवों के जन्म, वाल्यकाल, शिक्षा आदि का कथन,
१. देखो पउमचरिउ संधि ६७।३.४ । संधि ६६, १०-१२ । २. देखो पउमचरिउ ७६, ४-११, ७६-२-३ ३. देखो संधि १४, ६।। ४. केवि जस लुद्ध, सण्णद्ध कोह । केवि सुमित्त-पुत्त, सुकलत्त-चत्त-मोह ।
केवि णीसरंतिवीर । भूधरव तुंग धीर । सायरव्व अप्पमाण, कुंजरव्व दिण्णणाण । केसरिव्व उद्धकेस, चत्त सव्व-जीवियास । केवि सामि-भत्ति-वंत, मच्छिराग्गि-पज्जलंत । केवि आहवे अभंग, कॅ कुमं पसाहि अंग । -पउमचरिउ ५७-२