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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह विवाह, राम-लक्ष्मण-सीता का वनवास, संबूकमरण, सीताहरण, रावण से राम-लक्ष्मण का युद्ध, सुग्रीव आदि से राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना, और उपचार प्रादि । विभीषण का राम से मिलना, रावणमरण, लंका-विजय, विभीषण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता-मिलाप, अयोध्या को प्रस्थान, भरतदीक्षा व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा, दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रवुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके केवल्य प्राप्ति, और निर्वाण लाभ, आदि का सविस्तार कथन दिया हुआ है।
इस ग्रन्थ में रामकथा का वही रूप दिया हुआ है, जो विमलसूरि के पउमचरिउ में और रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है । ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों की चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में आवश्यक होता है । इस दृष्टि से पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी ग्रन्थ में कोई दुरुहता नहीं हैं, वह सरल और काव्य-सौन्दर्य की अनुपम छटा को लिए हुए है। समूचा वर्णन काव्यात्मक-सौन्दर्य और सरसता से प्रोत-प्रोत है, पढ़ने के साथ ही मन रमने लगता है।
कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर आगे बढ़ती है और वहां वह सरलता और स्वाभाविकता का निर्वाह करती है। किन्तु जहां कवि प्रकृति का चिनगा करने लगता है । वहां एक से एक अलंकृत संविधान का आश्रय कर ऊँची उड़ानें भरता है । गोदावरी की उपमा दृष्टव्य है-गोदावरी नदी वसुधारूपी नायिका की बंकित फेनावली के वलय से अलंकृत दाहिनी वांह ही हो। जिसे उसने वक्षस्थल पर मुक्ताहार धारण करने वाले पति के गले में डाल रक्खा है।'
कवि को कुछ पंक्तियां वसुधा की रोम-राजि सदृश जान पड़ती हैं । २
युद्ध में लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अयोध्या के अन्तः पुर में स्त्रियों का विलाप कितना करुण है 'दुःखातुर होकर सभी रोने लगे, मानों सर्वत्र शोक ही भर दिया हो । मृत्यजन हाथ उठा उठाकर रोने लगे, मानों कमलवन हिम पवन से विक्षिप्त हो उठा हो। राम की माता सामान्य नारी के समान रोने लगी, सुन्दरी उमिला हतप्रभ रोने लगी, सुमित्रा व्याकुल हो उठी, रोती हुई सुमित्रा ने सभी जनों को रुला दिया-कवि कहता है कि कारुण्यपूर्ण काव्य-कथा से किसके प्रांसू नहीं आ जाते' । भरत और राम का
१. "फेणावनि बंकियवलयालंकिय, णं महि बहु अहें तणिया। __ जण णिहि भत्तार हो मोत्तिय-हार हो, बांह पसारिय दाहिणिया ॥ २. “कत्थवि णाणा विह रुक्खराइ, णं महिकुल बहु अहिं रोम-राई॥"
-पउमचरिउ ३. "दुक्खाउरु रोवइ सयलु लोउ, णं चप्पवि चप्पिवि भरिउ सोउ ।
रोवइ भिच्च-यणु समुद्हत्य, णं कमल-संडु हिम-पवण घत्थु । रोबइ प्रवरा इव राम जणणि, केवकय दाइय तरु सूल खणणि । रोवइ सुप्पह विच्छाय जाय, रोवइ सुमित्त सोमित्ति-माय । हा पुत्त पुत्त ! केत्तहि गनोसि, किह सत्तिएँ वच्छ थलें होसि । हा पुत्तु ! मरंतुम जो होसि, दइवेण केण विच्छो इप्रोसि । धत्ता-रोवंतिएं लक्खण-मायरिएँ समल लोउ रोमा वियउ ! कारुण्णइ कव्व कहाएं जिह, कोव ण अंसु मुसावियउ ।।" १३
-पउमचरिउ ६६, १३