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________________ वीर सेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तिहुयण-सयंभु जइ ण हुतु गंदणो सिरि सयंभुदेवस्स । कव्व कुलं कवित्त तो पच्छा को समुद्धरद्द ॥७॥ जइ ण हुउ छ दचूडामणिस्स तिहुयणसयंभु लहु तणउ । तो पढडिया कन्वं सिरिपंचांम को समारे ॥८॥ सव्वो वि जणो गेरहइंणियताय-वित्त दव्व-संताणं । तिहुयण-सयंभुग्गा पुण गहियं णं सुकइत-पंताणं ॥१॥ तिहुया रूयभुमेक मोत्ता सयंभुकन्व-मयरहरो । को तरह गंनुमंतं मझे णिस्सेस-सीसाणं ॥१०॥ इय चारु पोमचरियं सयंभुवे रहय सम्मत' । तिहुयण- प्रभुणा तं समाणियं परिसमत्तमिणं ॥ ११॥ मारुय सु - सिरिक राय ताय-कय-पोमचरिय अवसेसं । संपुरणं संपुरणं वंदश्रो लहउ संपुरणं ॥ १२॥ गोद-मया सुयांत विरइयं (?) वंदइय-पढमतणयस्स । वच्छलदाए तिहुयण संयंभुणा रहयं महत्पयं ॥ वंदय याग- सिरिपाल पहुइ-भन्त्रयण-समूहस्स । श्रारोगत समिद्धी संति सुहं होउ सम्बस्स ॥ सत्त महा संसग्गी तिरयणभूसा सु रामकड़ करणा । - तिहुयण - सयंभु- अणिया परिणउ चंदइय मरणतणउ ॥ इय रामायण पुराण समत्तं सिरि- विज्जाहर-कंडे संधीचो हुति वीस परिमाणं । उज्झाकडंमि तहा बावीस मुणेह गणणाए ॥ दह सुंदरकंडे एक्काहिय वीसजुज्मकंडेय | उत्तरकंडे तेरह सन्धीओ व सव्वाउ ॥ छ ॥ - लिपिकार-प्रशस्ति संवत् १२१४ वर्षे वैशाख सुदि. १५ लोमबार ग्रन्थ संख्या १२००० । २- रिट्ठमिचरिउ [ हरिवंश पुराण ] - महाकविस्वयंभू, आदिभागः सिरि परमागम-णालु सयल-कला- कोमल-दलु | करहु विसणु करणे जयत्र कुरुव- कुलुप्पलु ॥ X X X चितवइ सयम्भु काई कर मि, हरिवंस - महरण के तरम्मि । गुरु- वयण- तरंड लधु णवि, जम्मही विण जोइउ कोवि कवि || गाउ गाइड पाइन्तरि कलाउ, एक्कु विण गंधु परिमोक्कलाउ । तहिं श्रवसरि सरसह धीरवद्द, करि क दिणु मइ विमलमइ । इंदेण समप्पिड वायरणु, रसु भरहें वासे वित्थर । पिंगले छन्द-पय- पत्थारु, भम्म-दडिरिहि अलंकारु । वाणेण समपिड घण घणउ,तं अक्खर - डंबरु अप्पणउ । सिरिहरिसे यि णिउत्ताउ अरहि मि कहिं कत्तणउ । छणिय दुबइ-धुवएहिं जडिय - चउ मुद्देण समपिय पद्धडिय । जण याद जो रियए, सीए सब रियए । • पारंभिय पुणु हरिवंस कहा, स-समय पर समय विचार-सहा । " घत्ता -- पुच्छइ मागहणाहु, भव- जर मरण-वियांरा । थिउ जिण सास केम, कहि हरिवंस भंडारा ॥२॥ X x x इय रिgfमचरिए धवलइयासिय सयंभु एवकएं पढमो समुहविजयाहिसेयरणामो इमो सग्गो ॥१॥ अन्तिममाग: इह भारह पुराण सुपसिद्धउ, ऐमिचरिय- हरिवंसाइन्छ । वीर - जिसे भवियहो क्विड, पच्छ गोयमसामिण रक्खिउ | - सोहम् में पुणु जंबूसा में, farहुकुमारें दिग्गयगा । दिमित्त अवरजिन गाहें, गोवणेण सुभद्दवाहें । एम परंपराई अलग्गउ, आयरियह मुंहाउ श्रात्रग्गड 15 सुसंखेव सुहारिड, विउसें सब में गहि वित्थारड, पढडिया छन् सुमंणोहरु भवियण जगा. मग सब- सुहंकरु, जस परिसेसि कहिं जं सुरयाउ । तं तिहुयण संयंभु कि पुण्यर, सुपुपि भरग्निहित
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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