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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह एक अपूर्ण प्रति रामनगर में सं० १५२७ की लिखी हुई प्रो० एच० डी. वेलंकर महोदय को प्राप्त हुई थी और उन्होंने उसे सम्पादित कर प्रकाशित कराया' । इस छन्द ग्रंथ के पहले तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्ण वृत्तों का और अन्त के ५ अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का कथन किया गया है । और छन्दों के अनेक उदाहरण भी पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं से तथास्वोपज्ञ ग्रन्थों से भी दिये गये हैं। इस ग्रंथ का प्रारम्भिक अंश नहीं है, और न परिचयात्मक अन्तिम प्रशस्ति ही है। हां, ग्रंथ के अंतिम अध्याय में गाहा, अडिल्ला, पद्धडिया आदि छन्दों के जिनदेव की स्तुतिपरक स्वोपज्ञ उद्धरण भी दिए हुए हैं। छन्द ग्रंथ के सातवें अध्याय का जो २७वां पद्य पत्ता छन्द के उदाहरण में दिया गया है वह 'पउमचरिउ' की पांचवीं संधि का पहला पद्य है । ६-४२ का 'वम्महतिलम' का जो उद्धरण है वह राम कथा की ६५वीं सन्धि का प्रथमपद्य है। इसी तरह ६-७४ में 'रणावली' का जो उदाहरण दिया है वह पउमचरिउ की ७७वीं संधि के १३वें कडवक का अन्तिम पद्य है। और छटे अध्याय का ७१वां पद्य पउमचरिउ की ७७वीं संधि का प्रारम्भिक पद्य है। इनसे स्पष्ट है कि कवि ने अपने ग्रंथ के भी उद्धरण दिए हैं । और अन्य कवियों के ग्रंथों पर से उद्धरण देकर कवि ने अपने छन्द नैपुण्य को सूचित किया है । ___ कविवर जयकीति ने छन्दोनुशासन में स्वयंभूदेव के मत का उल्लेख करते हुए नन्दिनी छन्द "तौ नौ तथा पद्मनिधिर्जतौ जरौ । स्वयम्भूदेवेश मते तु नन्दिनी।" वाक्य के साथ दिया है जिससे जयकीति के सामने स्वयंभू का छन्द ग्रंथ रहा है। जयकीर्ति कन्नड़ प्रान्त के निवासी दिगम्बर विद्वान् थे। इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी या उससे पूर्व होना चाहिए; क्योंकि दशवीं शती के कवि असग ने इनका उल्लेख किया है। इनके छन्दोऽनुशासन की प्रति सं० ११९२ को लिखो हुई जैसलमेर के भंडार में मिली है। इस से यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि स्वयंभू का उक्त छन्द ग्रंथ ७वीं शताब्दी की रचना है। स्वयंभू १. देखो, रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे जनरल सन् १९३५ पृ० १८-५८ । और बोम्बे यूनिवर्सिटी जनरल जिल्द ५ नं० ३ नवम्बर १९३६ ।" २. "तुम्ह पन कमल मूले अम्हं जिण दुःख भावत विपाई। दुरु ढुरुल्लियाई जिणवर जं जाणसु तं करेज्जासु ॥३८ जिणणामें छिदे बि मोहजालु, उप्पज्जइ देवल समिसालु। जिण णामें कम्मइं णिहलेवि, मोक्खग्गे पइसिम सुह-लहेवि ॥"४४ ३. “अक्खइ गउतमसामि, तिहुप्रण लद्ध पसंसहो । सुण सेणिय उप्पत्ति, रक्खस-बाणर-वंसहो ।" ४. "हणुवंतरणे परिवेढिज्जई णिसियरेहि । णं गयणयले बाल दिवायरु जलहरेंहि ।। ५. "सुरवर डामरु रावणु दङ्घ जासु जग कंपइ। अण्णुकहिं महु चुक्कइ एवगाइ सिहिजंपइ ॥" ६. "भाइ विप्रोएं जिह जिह करइ बिहीसणु सोउ । तिह तिह दुक्खेण सहरि बाल वाणर लोउ ।। ७. इस ग्रंथ का विशेष परिचय जैन साहित्य और इतिहास में पृष्ठ २०५ से २०७ तक देखें । ८. संवत् ११९२ प्राषाढ़ सुदि १० शनौ लिखितम् ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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