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________________ प्रस्तावना ३७ का यह छन्द ग्रंथ हिन्दी अनुवाद के साथ सम्पादित होकर प्रकट होना चाहिए, जिससे छन्द शास्त्र के रसिक जन लाभ उठा सकें। अपभ्रंश व्याकरण अपभ्रंश भाषा के जो व्याकरण दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे अधिक प्राचीन नहीं हैं। प्राचीन समय में अपभ्रंश भाषा में व्याकरण अवश्य लिखे गए होंगे, किन्तु वे वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। स्वयंभूदेव के पउमचरिउ के ५ वें पद्य में यह बतलाया है कि-अपभ्रंश वाला मदोन्मत्त हाथी तब तक ही स्वच्छन्दता से विचरण करता है जब तक कि उस पर स्वयंभू-व्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता' । त्रिभुवनस्वयंभू के इस उल्लेख से कि स्वयंभूदेव ने अपभ्रंश का व्याकरण भी बनाया था, परन्तु खेद है कि वह इस समय उपलब्ध नहीं होता । उसीके छठे पद्य में स्वयंभू को पंचानन (सिंह) की उपमा दी गई है। जिसकी सच्छन्दरूप विकट दाढ़ें, जो छन्द और अलंकाररूप नखों से दुष्प्रेक्ष्य है और व्याकरणरूप जिसकी केसर (अयाल) है। इससे भी उनके व्याकरण ग्रन्थ होने की सूचना मिलती है, साथ ही यह भी प्रमाणित होता है कि स्वयंभू ने छंद और अलंकार के ग्रन्थ भी बनाये थे। जिनमें छन्द ग्रन्थ तो उपलब्ध भी है । शेष नहीं। अपभ्रंश के प्रचलित व्याकरणों में हेमचन्द्र का व्याकरण सबसे अच्छा है। इस व्याकरण का अध्ययन करने से यह विदित है कि उसमें कई भाषाओं का मिश्रण है। प्राकृत और शौरसैनी इन दो भाषाओं का मिश्रण तो ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ही स्वीकार किया है जैसाकि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है:"प्रायो ग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्षते तस्यापि क्वचित् प्राकृत शौरसैनी वच्च कार्यं भवति ।" हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में अपभ्रंश के स्वपरिवर्तन में काफी स्वतंत्रता दी है किन्तु परमात्मप्रकाश के कर्ता जोइन्दु ने यह स्वतंत्रता नहीं दी है । व्यंजनों के परिवर्तन में (४-३६६ सूत्र में) असंयुक्त 'क-ख, त-थ, प-फ, के स्थान में क्रम से 'ग-घ, द-ध, ब-भ' होते हैं । किन्तु उसका निर्वाह उनके द्वारा उद्धृत उदाहरणों में नहीं हो सका है फिर भी यह व्याकरण अपनी विशेषता रखता ही है। नाटकों में अपभ्रंश का प्रयोग विक्रम की द्वितीय शताब्दी के विद्वान अश्वघोष के 'सारिपुत्र प्रकरण नाटक में 'मक्कट हो' रूप उल्लिखित मिलता है जो 'मर्कटस्य' का अपभ्रंश रूप माना जा सकता है । चतुर्थ शताब्दो के भास के 'पंचरात्र, नाटक में ग्वालों के संवाद में मागधी का प्रयोग होने से उसे भी मागधी अपभ्रंश कहा जा सकता है। जैसे षद्दमंडलु षुय्यो...शतमण्डलः सूर्यः । ____ डाक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी ने 'ओ' विभक्ति का अपभ्रंश की विभक्ति में परिवर्तित होने का समय ईसा की तृतीय शताब्दी अनुमानित किया है। १. तावच्चि सच्छंदो भमइ अवभंस-मच्च (त्त) मायंगो। जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुसो तच्छिरे पडइ ॥५॥ २. सच्छंद-वियउ-दाढो, छंदो (दा) लंकार-गहर-दुप्पिच्छो । वायरण-केसरऽड्ढो सयंभु-पंचाणणो जयउ ।६। ३. देखो, हेमचंद्र का प्राकृतव्याकरण ४१३२६ सूत्र । ४. इण्डो आर्यन एण्ड हिन्दी पृष्ठ ६E
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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