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________________ ३८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मुद्रा राक्षस के (लगभग चतुर्थ शताब्दी) दूसरे अंक में माथुर ने जिस बोली का प्रयोग किया वह मागधी होते हुए भी उकार बहुला होने के कारण मागधी अपभ्रंश कहा जा सकता है । यद्यपि टीकाकारों ने उसे 'टक्की' बतलाया है, किन्तु उसका शुद्ध रूप 'ठक्की' जान पड़ता है। कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक (ई० स० चतुर्थ शताब्दी) के चतर्थ अंक में सोलह पद्य अपभ्रंश भाषा के दिये हए हैं जिनमें के एक दो पद्य विभिन्न छन्दों के निम्न प्रकार है: मइँ जाणियई मिअलोग्रणी णिसिअरु कोइ हरेइ । जाव णु रणव तडि सामलो धाराहरु वरिसेइ । अर्थात् 'जब तक नई बिजली से युक्त श्यामलमेघ वरसने लगा, तब तक मैंने यही समझा था कि मेरी मृगलोचनी (प्रिया) को शायद कोई निशाचर हरण किये जा रहा है। ___'रे-रे हंसा कि गोविज्जइ, गइ अणुसारें मई लक्खिज्जइ । कई पई सिक्खिउ ए गइ-लालस, सापई दिठ्ठी जहण-मरालस ॥' अपभ्रंश के इन पद्यों से यह स्पष्ट जाना जाता है कि ईसा की चतुर्थ शताब्दी के समय अपभ्रंश में विभिन्न छन्दों में पद्य रचना होने लगी थी। यह बात और भी ध्यान में रखने लायक है कि प्राकृत भाषा में प्रायः तुकान्त छन्दों का प्रयोग नहीं मिलता, जबकि अपभ्रंश भाषा में इसकी बहुलता है, ध्वनि और पदगठन भी इसी ओर संकेत करते हैं। देशी भाषायें ही अपने शुद्ध अशुद्ध पदों के साथ अपभ्रंश में परिणित हुई हैं। उनका शुद्ध प्रतिष्ठित रूप प्राकृत कहलाता था और अपभृष्ट रूप अपभ्रंश । देशी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी अपभ्रंश में मिल जाता है-वह विरूप नहीं जान पड़ता, इसीसे कविजनों ने देशी भाषा को अपभ्रंश बतलाया है । अपभ्रंश-साहित्य-सूची अंबदेव सूरि समरारास (रचना सं० १६७१) (मुद्रित) अब्दुल रहमान संदेश रासक (मुद्रित) अभयगरिण सुभद्राचरित (र० सं० १३६१) अभयदेवसूरि जयतिहुअणस्तोत्र (र० च० १११९) (मुद्रित) अमरकोतिगरणी नेमिनाथचरिउ (र०च० १२४४) षट्कर्मोपदेश (र०च० १२४७) पुरंदरविहाण कहा, महावीरचरिउ जसहरचरिउ, झारणपईव (अनुपलब्ध) प्रासवाल पासनाहचरिउ (र० च० १४७६) उद्योतनमूरि कुवलयमाला (वि० सं० ८३५) (मुद्रित) कण्हपा प्रादि चौरासी बौद्ध सिद्धों को दोहा कोष मादि रचनाएं प्रकाशित कनककोति नन्दीश्वर जयमाला कनकामर करकंडुचरिउ (मुद्रित) गुरगभद्र भट्टारक (वि० की १५वीं १६वीं शताब्दी) अरणंतवयकहा, सवणवारसिविहारणकहा, पक्खवइ कहा, णहपंचमी कहा, चंदायणकहा, चंदणट्ठी कहा, णरय उतारी दुद्धारसकहा, रिणदुहसप्तमी कहा, मउडसत्तमी कहा, पुप्फंजलिवय कहा, १. डा० कीयकृत संस्कृत ड्रामा पृ० ८६,१४१,१६६, पंजाब का वह प्रदेश 'ठक्क' ही कहलाता है ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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