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प्रस्तावना
मालिनी छन्द में प्रत्येक पंक्ति में ८ और ७ अक्षरों के बाद यति के क्रम से १५ अक्षर होते हैं। उसे अपभ्रंश भाषा के कवि ने प्रत्येक पंक्ति को दो भागों में विभाजित कर यति के स्थान पर तथा पंक्ति की समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप में ढाल दिया है यथा
"विविह रस विसाले, गेय कोऊ हाले। ललिय वयण माले, अत्थ संदोह साले। भुवरण-विदिद णामे, सव्व-दोसो वसामे । इह खलु कह कोसे, सुन्दरे दिण्रण तोसे ।।" खलयरण सिर मूलं सज्जणागणंद मूले । पसरइ अविगेलं मागहाणं सुरोल । सिरि गविय जिरिंगदो, देह वायं वगिदो। वसु हय जुड़ जुत्तो, मालिणी छंदु वुत्तो।। सुदं०३-४ ।
दो छन्दों को मिलाकर अनेक नये छन्द भी बनाये गए हैं, जैसे छप्पय कुंडलिया, चान्द्रायन और वस्तु आदि ।
अपभ्रंश भाषा के काव्यों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं
पज्झटिका, पादाकुलिक, अलिल्लाह, रड्ढा, प्लवंगम, भुजंग प्रयात, कामिनी, तोटक, दोधक, सग्गिणी, पत्ता, दोहा, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वंसस्थ, प्रारणाल, तोमर, दवई, मदनावतार, चन्द्रलेखा. कुवलयमालिनी, मोत्तियदाम, उपजाइ विलासिनी, शालिभंजिका, इन्द्रवज्रा, वसन्ततिलका, प्रियंवद, अनंतकोकिला, रथोद्धता, मंदारदाम, श्रावली, नागकन्या, पृथिवी, विद्युन्माला, अशोकमालिनी और निसेणी आदि।
इससे यह सहज ही ज्ञात होता है कि अपभ्रंश कवि छन्दों की विशेषताओं से परिचित थे, इसी से वे अपने ग्रन्थों में विविध छन्दों का प्रयोग कर सके। कवि नयनन्दी ने अपने 'सकल विधि-विधान काव्य' में ६२ मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया है। इससे प्रमाणित होता है कि नयनन्दी छन्द-शास्त्र के महान वेत्ता थे।
कवि श्रीचन्द ने 'रयणकरण्ड सावयायार' की १२वीं संधि के तीसरे कडवक में कुछ अपभ्रंश छन्दों का नामोल्लेख किया है।
गिरयाल, प्रावली, चर्चरीरास, रासक, ध्रुवक, खंडय, उपखंडय, पत्ता, वरतु, अवस्तु, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, हेला, गाहा, उपगाहा, आदि छन्दों के नाम दिये हैं।
इसी तरह कवि लक्ष्मण ने अपने 'जिनदत्तचरिउ' की चार संधियों में वर्णवृत्त और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है उनके नाम निम्न प्रकार हैं
विलासिणी, मदनावतार, चित्तगया, मोत्तियदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, प्रारणाल, वस्तु, खंडय, जंभेटिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया, पोमिणी, चच्चर, पंचचामर, णराच, निभंगिरिणया, रमणीलता, चित्तिया, भमरपय, मोणय, अमरपुर, सुन्दरी और लहुमत्तिय अादि ।
अपभ्रंश में अनेक छन्द ग्रंथ भी लिखे गये होंगे। परन्तु वे अाज उपलब्ध नहीं हैं । केवल स्वयंभू का छन्द ग्रंथ प्राप्त है वह अपभ्रंश की महत्वपूर्ण देन है । परन्तु वह जनरलों में प्रकाशित होने के कारण लोगों के पठन-पाठन में बहुत कम आ सका है, अतएव बहुत से लोग उसकी महत्ता से अनभिज्ञ ही हैं। इस ग्रंथ की
१. छंदणिरयाल प्रावलियहि, चच्चरि रासय रासहि ललियहि ।
वत्थु अवत्यू जाइ विसेसहि, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहिं । दोहय उवदोहय अवभंसहि, दुवई हेला गाहु व गाहहिं । धुवय खंड उवखंडय घत्तहिं, सम-विसमड समेहि विचिहि ।। रयणकरंडसावयायार