SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह आगे नायिका उस पथिक से कहती है कि-'सन्देश बहुत विस्तृत है परन्तु मुझ नहींकहा से जाता। जो कनगुरिया की मुंदरी (अंगूठी) थी वह बांह में समा जाती है'। इससे उसके विरह-सम्बन्धी परितापका अन्दाज लगाया जा सकता है। ___ दूसरी रचनाएँ अध्यात्मरस संयुक्त हैं, जिनमें राग से विराग उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाता है। उनमें आत्म-सम्बोधजनक उपदेश की प्रधानता है। जैसा कि कुवलयमाला के उक्त 'चर्चरी रास' में अङ्कित है । देवभक्ति रूप रचनाएँ भी जहां देव में अनुरागवर्धक हैं वहा देह-भोगों से विराग की भी संसूचक हैं। इसी से उनकी गणना अलग नहीं की है। आध्यात्मिक रचनामों में कवि विनयचन्द्र का चूनडीरास, निर्भरपंचमीकहा रास तथा पण्डित योगदेव का 'सुव्रतानुप्रेक्षारास' और जल्हिगका अनुप्रेक्षा रास आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। कवि लक्ष्मीचन्द का दोहा अनुपेक्खारास भी महत्वपूर्ण कृति है, जो संवेगनिर्वेद भाव की संसूचक है। इन रचनाओं में संसार और शरीर के स्वरूप का निर्देश करते हए वैराग्य की अनुपम छटा को जागृत किया गया है, और कर्मास्रव तथा कर्मबन्ध से छुड़ाने का यत्न किया गया है। साथ ही वारह भावनाओं द्वारा वस्तुतत्त्व का विवेक कराते हा प्रात्मा को वैराग्य की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया है। तीसरी प्रकार की रासक रवनाओं में किसी व्यक्ति विशेष राजा, देवी, देवता या सामान्य पुरुष का जीवन-परिचय अंकित किया हुआ मिलता है। ऐसे अनेक रास लिखे गये हैं, जैसे जंबूसामिरास, वाहुबलीरास, सुकमालमामिरास, पृथ्वीराज रासो और अम्बादेवीरास आदि। ये सब रास ग्रन्थ एक प्रकार के चरित रास हैं। एक व्यक्ति विशेष के जीवन की मुख्यता से लिखे गए हैं। परन्तु उनमें से जैन चरित रासो में जीवन-घटनाओं के परिचय के साथ सांसारिक देह-भोगों से विरक्ति दिखलाते हुए प्रात्म-साधना की ओर ले जाने का स्पष्ट प्रयास किया गया है। छन्द ग्रन्थ अपभ्रंश के प्रवन्ध काव्यों, मुक्तक-काव्यों और चरितात्मक, स्तुत्यात्मक तथा रास आदि ग्रन्थों में अनेक छन्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत में वर्णवृत्तों का और अपभ्रंश में मात्रिक छन्दों का प्रयोग अधिक हुआ है। पर वहाँ वर्ण-वृत्तों का सर्वथा अभाव भी नहीं है। अपभ्रंश कवियों ने संस्कृत के उन्हीं छन्दों को ग्रहण किया है, जिसमें उन्हें विशेष प्रकार की गति मिली है और इसीसे उन्होंने संस्कृत वर्णवृत्तों में अपनी कुछ इच्छानुसार सुधार या परिवर्तन और परिवर्धन कर उन्हें गान तथा लय के अनुकूल बना लिया है। छन्दों में अन्त्यानुप्रास की परम्परा अपभ्रंश कवियों की देन है। इससे पद्य की ज्ञेयरूपता अधिक वृद्धि को प्राप्त हुई । अपभ्रंश के कवियों ने अन्त्यानुप्रासका प्रयोग प्रत्येक चरण के अन्त में तो किया ही है; किन्तु उसका प्रयोग कहीं-कहीं मध्य में भी हुआ है । तुकान्त या तुक का प्रयोग लय को उत्पन्न करना या उसे गति प्रदान करना है। अथवा ऐसी शब्द योजना का नाम ही तुक है। प्राकृत कवियों ने प्रायः मातृक-छन्दों का ही प्रयोग किया है उनमें तुक का प्रयोग नहीं पाया जाता। हिन्दी के तुलसीदास आदि कवियों की रचनाओं में चौपाई या दोहा छन्द ही आता है किन्तु अपभ्रंश कवियों की कड़वक शैली में सभी वर्ण और मात्रिक-छन्दों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इतना ही नहीं किन्तु संस्कृत के वर्ण वृत्तों से उन्होंने एक ही छन्द में नवीनता उत्पन्न कर अनेक नूतन छन्दों की सृष्टि भी की है। संस्कृत के १. संदेसडउ सवित्थरउ, पर मइ कहण न जाइ । जो कालंगुलि मूंदडउ, सो बाहडी समाइ ॥ संदेश रासक
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy