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________________ प्रस्तावना उद्दण्डता का उल्लेख उक्त रास के–'यो हि गर्वमविवेक भरेण करिष्यते' वाक्य से ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत भाषा में अन्य कोई प्राचीन रास देखने में नहीं आया। रासक-रचनाओं में कई रचनाएँ उपदेशक भावना के साथ सम्बोधक भावना से प्रोत-प्रोत हैं। इन रास-रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुरातन काल में जो रास या रासक रचनाएँ रची जाती थीं, वे सारगर्भित होती थीं। किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों उनका विस्तार होता गया त्यों-त्यों उन रचनाओं की सारपरकता भी कम होती गई। रास या रासक रचनाएँ जैन सम्प्रदाय के अतिरिक्त हिन्दू सम्प्रदाय में भी पाई जाती हैं। परन्तु जैनियों में इसका रिवाज बहुत पुराना है। वीर कवि के विक्रम संवत् १०७६ में रचित 'जम्बूसामिचरिउ' नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि उनके पिता कविवर देवदत्त ने अपभ्रंश भाषा में 'अम्बादेवी चर्चरी रास' नामक ग्रन्थ बनाया था। जिसका रचनाकाल संवत् १०५० के लगभग है। यह रास ताल, स्वर, लय और नृत्य के साथ गाया जाता था। यह रचना अभी अनुपलब्ध है। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रासो की रचनाएँ अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में चारसौ-पांचसौ होंगी, उनमें दिगम्बर रासा-ग्रन्थों की संख्या २०० के लगभग है। दिगम्बर सम्प्रदाय का रासा साहित्य अभी अप्रकाशित है। उसके प्रकाश में आने पर अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ सकेगा। जनेतर कवियों ने भी रास ग्रन्थ बनाये हैं। उनमें 'पृथ्वीराज रासो', 'वीसलदेव रासो', 'खुमान रासो' और 'सन्देश रासो' आदि के नाम प्रसिद्ध हैं । इनमें सबसे पुराना पृथ्वीराज रासो बतलाया जाता है, परन्तु उसका वर्तमानरूप बहुत-कुछ अस्त-व्यस्त है, तो भी वह अपभ्रंश भाषा के बहुत नज़दीक है। हां, उसकी कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ जरूर खटकने वाली हैं। उनका उपलब्ध इतिहास के साथ ठीक मेल नहीं बैठता । अतः वह आज भी चर्चा का विषय बना हुआ है । मुसलमान कवि 'अब्दुलरहमान' का सन्देश रासक उल्लेखनीय है। यह रचना सिंघी सीरीज वम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। हिन्दी ग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बई से डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी और त्रिपाठी के सम्पादन में इसका हिन्दी अनुवाद सहित एक नया संस्करण अभी प्रकाशित हुआ है । उसमें उसकी कई ज्ञातव्य वातों पर प्रकाश डाला गया है। रासक रचनामों के प्रकार रास या रासो रचनाएँ तीन प्रकार की दृष्टिगोचर होती हैं। पहली राग परक अर्थात् शृङ्गार तथा विरहसूचक, दूसरी अध्यात्मरस से युक्त या उपदेशपरक और तीसरी जीवन-चरित सम्बन्धी। इनमें अब्दुलरहमान की कृति संदेश रास प्रथम प्रकार की रचना है। इसमें एक विरहिणी नायिका का विरह-सूचकसन्देश विरही पति के पास पहुंचाने का वर्णन किया गया है । जैसा कि उस ग्रन्थ के निम्न दोहों से स्पष्ट है। जसु पवसंत रण पवसिया मुइअ विग्रोह ण जासु । लज्जिज्जइ संदेशडउ, दिती पहिय पियासु ॥३७॥ हे पथिक ! जिसके प्रवास करते हुए प्रवास नहीं किया और न जिसके वियोग से मरी ही, उस प्रिय को सन्देश देती हुई लज्जित हो रही हूं। १. देखो, उपमितिभवप्रपंच कथा प्रस्ताव ४ श्लोक ४३७ से ४४२ । २. चच्चरि बंधि विरइउ सरस गाइज्जइ संतिउ तारजस । णच्चिज्जइ जिण पय सेवहि, किउ रास उ अंबादेवयहिं ॥ -जम्बूस्वामिचरित १-४
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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