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जैन पंच प्रशस्ति संग्रह
रास परम्परा का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष, या देवी देवता की आराधना, और साधु या किसी सेठ की जीवन-गाथा को अंकित करने में, अथवा किसी विरहिणी नारी के सन्देश को उसके विरही पति तक पहुँचाने के लिए अथवा आत्म-सम्बोधन के लिए रासा साहित्य की सृष्टि की गई है।
अपभ्रंश का प्राचीन 'चर्चरी' रास उपलब्ध रास-रचनाओं में उद्योतनसूरि का चर्चरी रास सबसे पुराना है। यह कुवलयमालाकहा के प्रारम्भ में निबद्ध है। इसकी रचना सम्राट् वत्सराज के समय जालौर (जाबालिपुर) के आदिनाथ के मन्दिर में बैठ कर शक संवत् ७०० (वि० सं० ८३५) में की गई थी। इसमें बतलाया गया है कि-मनुष्य सचेत होकर काम करे, अन्यथा मृत्यु के घेर लेने पर कुछ भी नहीं हो सकेगा। इस रास में चार ध्रुवकों की परिपाटी है, जिनमें एक ध्रुवक-जहाँ कामोन्मादक रस का जनक है वहाँ दूसरा विषय वासना से परान्मुख करने वाला है, तीसरा ध्रुवक अशुचि मल-मूत्रादि से संयुक्त घृणित अस्थिपंजर को दिखाकर ज्ञान और विवेक की ओर ले जाता है तो चौथा ध्रुवक वैराग्य की ओर आकृष्ट करता है। इस से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैन कवियों की रास-रचना का मूल उद्देश्य राग से हटाकर जनसाधारण को ज्ञान-वैराग्य की ओर आकर्षित कर हित के मार्ग में संलग्न करना रहा है।
उद्योतनसूरि की इस कृति में अनेक रसों का संमिश्रण है। इसमें भगवान् महावीर के गणधर सुधर्म स्वामी की एक जीवन घटना को अंकित किया गया है-'वे एक दिन अकेले ही एक ऐसे वन में गए जहाँ ५०० भयंकर डाकुओं का समूह रहता था। वहां उन्होंने 'चर्चरीरास' युक्त, एक गान गाया और ऐसा नृत्य किया कि डाकू दल ने सदा के लिए डाकेजनी छोड़कर आत्म-बोध प्राप्त किया। इससे इस रास की महत्ता ज्ञात होती है।
उपमिति भव-प्रपंचा कथा के अन्तर्गत 'रिपुदारणरास' नाम का एक रास है। जिसकी रचना कवि सिद्धर्षि ने वि० सं० ६६२ में की थी। यह कृति संस्कृत भाषा के ५ ध्रुवक पदों में रची गई है । उसका नाम सार्थक है और वह गान, नृत्य, लय आदि से समन्वित है। इसमें वृहद् देश के सार्वभौम राजा तपन द्वारा सिद्धार्थपुर के मिथ्यावादी और अहंकारी उद्दण्ड राजा रिपुदारण को तांत्रिक योगी से दण्ड दिलाने या उसे वश में कर उसके विनाश करने का उल्लेख किया गया है। रिपुदारण की
१ देखो, कुवलयमाला कथा पृ० ४ २ संबुज्भह कि ण बुज्झह एत्तिए वि मा किंचि मुज्झह । कीरउ जं करियव्वयं पुण ढुक्कइ तं करियव्वयं ।।
___ कुवलयमाला पृ० ४ ३ .'जहा तेण केवलिणा अरणं पविसिऊण पंच-चोर-सयाई रास-णच्चणच्छलेण महामोहग्गहगहियाई प्रक्खिविऊण
इमाए चच्चरीए संबोहियाई।' xxx एवं च जहा काम-णिवेप्रो तहा कोह-लोहमाण-मायादीणं कुतित्थयाणं च । समकालं चिय सव्व-भाव-वियाणएण गुरुणा सव्वष्णुणा तहा तहा गायंतेण ताई चोराणं पंच वि सयाई संभरिय-पूव-जम्म-बत्तंताइं पडिवण्ण-सम-लिंगाइं तहा कयं जहा संजमं पडिवण्णाई ति।।
-कुवलयमाला पृ० ४-५ ।