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________________ प्रस्तावना ३१ हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने नाट्यदर्पण में रासक का लक्षरण हेमचन्द्र के लक्षणसे भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है किन्तु उसके नृत्यगीत वाले पहलू को पूर्ण से रूप माना है' । वाग्भट्ट ने भी हेमचन्द्र का अनुसरण करते हुए उसे गेय रूप में स्वीकार किया है । हां विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण में रासक के लक्षण पर विचार करते हुए पात्र, वृत्ति आदि की पूर्ण रूप में व्याख्या करने का प्रयत्न किया है । महाकवि स्वयंभू ने अपने छन्द ग्रन्थ में 'रास' का लक्षण बतलाते हुए उसे जन-मन अभिराम बतलाया है, । घत्ता, छड्डरिगया, पद्धडिया तथा ऐसे ही अन्य सुन्दर छन्दों से युक्त रासाबन्ध काव्य जन-मनभिराम होता है । इसके बाद ही कवि ने २१ मात्रावाले रासा छन्द का लक्षण भी दिया है । स्वयंभू के इस छन्दलक्षरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस काल में रासाबन्ध छन्द प्रचलित था । उस रासक या रासा छन्द के लक्षण पर विचार करने से अब्दुलरहमान का 'सन्देश रासक, अपभ्रंश भाषा का सुन्दर काव्य-ग्रन्थ कहा जा सकता है" । अन्य अनेक रास यद्यपि इस कोटि के नहीं हैं परन्तु वे जीवन परिचयात्मक रास भी अपनी महत्ता कम नहीं रखते । afa शारङ्गधर के द्वारा संगीत में दी हुई रास-सम्बन्धी कथा भी इस के मूलरूप पर बहुत कुछ प्रकाश डालती है। इस कथा में बतलाया गया है कि शिव नेताण्डव नृत्य किया और पार्वती ने लास्यं नृत्य | पार्वती ने उसे वारणासुर की पुत्री उषा को सिखलाया, जो कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को विवाही गई थी । उषा ने द्वारावती की गोपियों को और गोपियों ने सौराष्ट्र देश की नव-युवतियों को सिखलाया, और वहां से वह समस्त भूमंडल में विस्तृत हुआ । व्रज की रासलौला तो लोकप्रसिद्ध है ही । यह प्राचीन परम्परा अपभ्रंश भाषा के विकास काल में उच्च स्तर पर थी। विक्रम की १० वीं से १३ वीं शताब्दी तक इसमें अनेक रास रचे गये हैं और बाद में राजस्थानी हिन्दी और गुजराती मिश्रित अनेक रास रचनाएं देखने में आती हैं। विक्रम की १५ वी शताब्दी में भ० सकल कीर्ति के लघुभ्राता एवं शिष्य अकेले ब्रह्म जिनदास के रचे हुए ४४ रासे मिलते हैं । १. षोडश द्वादशाष्टी वा यस्मिन् त्यन्ति नायिकाः । पिंडीबन्धादि विन्यासे रासकं तदुदाहृतम् ॥ पिंडनात् तु भवेत् पिंडी गुम्फनाच्छृखला भवेत् । भेदनाद् भेद्यको जातो लता जालापनोदतः ॥ कामिनीभिर्वो भर्तुश्चेष्टितं यन्तनृत्यते । रामाइ वसन्तमासाद्य स शेषो नाट्यरासकः || नाट्य दर्पण ओरियण्टन इन्स्ट्रीट्यूट बड़ौदा १९२६ भा० पृ० २१४ २. डोम्बिका भाणप्रस्थानभाणिकाप्रेरण शिङ्गंक रामाक्रीडहल्ली सकश्रीगदितरासक गोष्ठी प्रभृतीनि यानि । काव्यानुशासन २, पृ० १८ ३. साहित्यदर्पण पृ० १०४ - १०५ । ४. घत्ता छडरिग्राहि पद्धडिग्राहि सुग्रण्णरूहि । रासाबंधो कब्वे जण-मण- अहिरामन होइ ।। ८-४६ ५. एकवीसमत्ता णिहणउ उद्दाम गिरु, चडदसाइ विस्सामहो भगरण वि रइउ थिरु रासाबंधु समिद्धु एउ अहिराम अरू ।। ८-५०
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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