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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह हीत की गई है जिससे स्पष्ट है कि ग्रंथ इससे पूर्व रचा गया होगा' । इसकी भाषा देखने से प्रतीत होता है कि इसका निर्माण वि० की १४-१५ वीं शताब्दी में हुआ होगा। चौथी कृति 'मदन-जुद्ध' है। जिसके कर्ता कवि बूचिराज या 'बल्ह' हैं। ग्रन्थ में इक्ष्वाकुकुलमंडन नाभिपुत्र ऋषभदेव के गुणों का कीर्तन करते हुए, उन्होंने कामदेव को कैसे जीता, इसका विस्तार से कथन किया गया है। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल वि० सं० १५८९ आश्विन शुक्ला एकम शनिवार दिया हुआ है। संस्कृत और अपभ्रंश के रूपक-काव्यों के समान हिन्दी भाषा में भी अनेक रूपक-काव्य लिखे गये हैं। जिनमें से एक का परिचय अनेकान्त में दिया गया है। और शेष का परिचय अभी अप्रकाशित है। जैसे पंचेन्द्रिय सम्वाद' सूवा बत्तीसी आदि । रासा साहित्य रासक स्वर-ताल नृत्य और लय के साथ गाई जाने वाली एक कला है । रास वह है जिसमें संगीत की रसानुभूति हो, अथवा जिसकी मधुर सुरीली तान और गंभीर नृत्य कला दर्शक के मन को आनन्दविभोर कर दें। इस कला में गान और नृत्यकला को ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्राचीन काल में स्त्रियां लास्यनृत्य' करती थीं, पर उसमें देश-भेद के कारण विविधता दृष्टिगोचर होती थी। उससे जनता का मनोरंजन और उसके प्रति आकर्षण भी होता था। यह संगीत कला का ही एक भेद ज्ञात होता है। रास-परम्परा का पुरातन उल्लेख भरत के नाट्य शास्त्र में पाया जाता है। अतः इसे केवल अपभ्रंश युग की देन कहना उचित नहीं है जब अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाएं नहीं होती थीं तब भी नृत्य और गान के रूप में रास प्रचलित थे। भरत ने नाट्यशास्त्र में रासक को एक उपरूपक माना है और उसके तालरासक, दण्डरासक और मण्डलरासक ये तीन भेद बतलाये हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्यानुशासन में रासक को गेय काव्य माना है। हेमचन्द्र ने 'अनेकार्थ-संग्रहकोष में रास का अर्थ-'क्रीडासु गोदुहाम् भाषा शृङ्खलि के' दिया है । जिसका अर्थ 'ग्वालों को क्रीड़ा' तथा भाषा में शृङ्खलाबद्ध रचना होता है। १. देखो, हिन्दी जन साहित्य का इतिहास, अप्रकाशित रचना। २. राइ विक्रम तणों संवत् नव्वासीय पनरहसइ सरद रुति पासु बखाणु । तिथि पडिवा सुकल पख, सनीचरवार करणक्खत्त जाणु ॥ मदनजुझ प्रशस्ति ३. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (अप्रकाशित) और रूपक-काव्य-परम्परा अनेकान्त वर्ष १४ ४. (क) 'तालरासकनाम स्यात् तत् त्रिधा रासकं स्मृतम् । ......दंडरासकं तु तथा मंडलरासकम् ॥ (ख) अभिनवगुप्त ने 'अभिनव भारती' में रासक को गेयरूपक का एक भेदमाना है। गेयरूपक में ताल और ___ लयका विशेष स्थान होता है और इसमें अधिक से अधिक ६४ युगल भाग ले सकते हैं। अनेकनर्तकी योज्यं चित्रताललयान्चितम् । माचतुः षष्टि युगलाद्रासकं मसृणोद्धतम् ।। ५. (क) गेयंडोम्बिकाभाणप्रस्थानशिड्गभाणिकाप्रेरणरामाक्रीडहल्लीसकरासकगोष्ठी श्रीगदितरागकाव्यादि । काव्यानुशा०८-४.१० ३२७
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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