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________________ जैनपन्थ-प्रशस्तिसंग्रह तहो सीसु सेय-मच्छी-शिवासु, अडहसि दुग्गाह गाहि (१), जसकित्ति जिलायम पह-पपासु । गामें पसिद दाउमाहि। तहो पहिमहामुखि मलकित्ति, पच्चत बासि मंडलुमसेसु, उद्धरिय जेब चारित्त वित्ति। पियवति सहेबिलु पुग्वदेसु । हो सीसुगमसमि बय-सिरेखा, तिहुअरियण कोविजेसम पर्या, परमप्पड साइट पर जेण। दक्खिणदिसि पेसिट णियय दंड । दो पढम भाव दूरीकएण, पच्छिम दिसि खरबह जे जियंति, दो माणहि सियमणु दिएणु जेण। सेवंति चाह अक्सरु णियंति।। गुणभदु महामह महमुखीसु, उत्तर दिस गवाह मुह वि पु, जियसंगहो मंडणु पंचमीसु । माति प्राण डोवती कप्पु । जे केवि भब्व कंदोह-वंद, किं कि गुण वयामि पवह तासु, परवेपिलु तह भरविंदु निंद। थे तोणिहिम्ब गंभीरमासु । मुणि गुणकित्तिमहारउ तच्च विद्यारउ सव्व सुहंकर विगयमलु मण इच्छिय-यह कप्परक्यु, मह पर पणवतहो भत्ति कुणंतहो कन्व-सत्ति संभवड फलु ॥२॥ प्रणदिणु जण वयहो विलुन दुल्लु। इह इत्यु दीवि भारहि पसिद्ध, तहिं कुल गयणंगवि सियपयंगु । णामेण सिरिपहु सिरि-समिदु । सम्मत्तवि-इसण-भूसियंगु। दुग्गु वि सुरम्मु जण जणिय-राउ, सिरि भयरवाल कुल कमल-मितु, परिहा परियरियड दीहकाड । कुलदेवि सवड मित्ताय गोत्तु । गोउर सिर कलसाहय पर्यगु, इह लखमदेखणामेव मासि, गाणा खच्छिए प्रालिंगि पंगु । अह हिम्मलयर-गुण-प्रयण-रापि । जहि-जण यहाणंदिराई, वाल्हाही शामें मासु भबज, मुणि-यय-गण-मंडिय-मंदिराई। सीमाहरणालंकिय सलज्ज । सोहति गठर-वर कह-मबहराई, तहो पाम पुतु जण-गयाराम, मणि-जडिय किवाई सुंदराई। हुच प्रारक्खिव तस जीव गाम् । जहि वसहि महायव चुय-पमाय, या खिउसी जब-जणिव-कामु, पर-रमणि परम्मुह मुक्क माय । बीयड होलू सुपसिन् जाम् । जहिं समय करहि घट घट हति, तहो बीह वरंगवति-अयसार. पडिसाद दिसि विदिसा फुति । हामेण महादिव्ही सुनार। जहिं पवण-गमन धाविय तुरंग, तेहमि दोहिमि सुहबक्सहिं भजहिं सोहह सेष्टि धरु । वारि-रासि भंगुर-तरंग। जिम मंद सुर्णदहि मणहरी रिसहु जिससह तिजय पहु॥४॥ जो भूसिड णेत्त-सुहावणेहि, तह दिउही पुच चयारि चार, सत्यब्व धवल-गोहण गणेहिं । शिवत्तवि वि बिज्जिय-धील्-माह। सुरपण वि समोहहि जहिं सजम्मु, दिउसी शामें जब-जविय-सेट, मेल्लेविशु सग्गाला सुरम्म। गुरु-मत्तिए संबड-मालदेउ । रिड-सीस-विहट्टणु पविउलु पट्टणु सिरिपहु थामे रयधि-खिहि । तस्साखुद बंड अवरु जाउ, सहि शिवसह महिवहरू सुरवा इतर परहं पयंहु सिहि ॥३ विएमाहरणासंकिपरकार। किवण्यामि बह रवि-सरिस-तेड, जो दिन दाजुबंदीयवाह, महि-मति पयती कप-विवेड। विरए विमाड सहरिस-मबाई।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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