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________________ १४ जन पंथ प्रशस्ति संग्रह गया था। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में साहू तोसउके वंश का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। जिसमें उनके परिवार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय दिया गया है। प्रशस्ति में तात्कालिक-ऐतिहासिक उल्लेख भी अंकित किए गए हैं। ___ कवि ने साहु तोसउ का उल्लेख करते हुए, उन्हें जिनेन्द्र-चरणों का भक्त पंचेन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, पाप से शंकित-भयभीत और सदा तत्त्वचिंतन में निरत बतलाया है। और लिखा है कि उसकी लक्ष्मी दुखी जनों के भरण-पोषण में काम आती थी। वाणी श्रुत का अवधारण करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त होता था। वह शुभमती था, तथा सम्भाषण में उसके कोई दोष न होता था। चित्त तत्त्वों के विचार में रहता था और दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से संतुष्ठ रहते थे। ऐसा वह तोसउ साहु लोक में आनंद को प्राप्त हो, जैसा कि दूसरी और तीसरी संधि के प्रारम्भ के निम्न पद्यों से स्पष्ट है जो णिच्चं जिण-पाय-कंज भसलो जो रिणच्च दाणे रदो। जो पंचेंदिय-भोय-भाव-विरदो जो चिंतए संहिदो। जो संसार-महोहि-पातन-भिदो जो पावदो संकिदो। एसो गंदउ तोसडो गुणजुदो सतत्थ वेई चिरं ॥२॥ लच्छी जस्स दुही जणाण भरणे वाणी सुयं धारणे। सीसं सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे। चित्तं तत्त्व-वियारणे करजुयं पूया-विहि सं ददं । सोऽयं तोसउ साहु एत्थ धवलो सं रणदो भूयले ॥३॥ प्रशस्ति में हिसार निवासी अग्रवाल कुलावतंश खेल्हा नामक ब्रह्मचारी द्वारा निर्मित चन्द्रप्रभ भगवान की विशाल मूर्ति का उल्लेख किया गया है, जिसे उन्होंने उक्त दुर्ग में निर्माण कराया था। ब्रह्मचारी खेल्हा श्री सम्पन्न थे, वस्तुस्वरूप को समझते थे और देह-भोगों से विरक्त थे। सम्मइ जिन चरिउ के निर्माण में ब्रह्मचारी खेल्हा का खास सहयोग रहा है, यह साहू तोसउ के पुत्र थे। इन्होंने कवि से उक्त ग्रन्थ रचने की स्वयं प्रेरणा नहीं की, किन्तु भट्टारक यशःकीति से अनुरोध करवाया था, सम्भवतः उन्हें यह सन्देह था कि कवि मेरे निवेदन पर ग्रन्थ न बनावें, इसी से उन्होंने कवि को यशःकीति से प्रेरित करवाया था। कवि भट्टारक यशःकीति के आदेश को कभी नहीं टाल सकते थे। अस्तु ब्रह्मचारी खेल्हा की भावना सफल हुई और कवि ने ग्रंथ निर्माण करना स्वीकृत कर लिया। इससे ब्रह्मचारी खेल्हा को हर्ष होना स्वाभाविक है । खेल्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति का क्षेत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमा धारी उत्कृष्ट श्राबक के रूप में आत्म-साधना करने लगे थे। हिसार के अग्रवाल वंशी साहु नरपति के पुत्र साहु वील्हा, जो जैनधर्मी और पाप रहित तथा दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुग़लक द्वारा सम्मानित थे। ____संधाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्र मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहज पाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का संघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वयं वहन किया था। ये सब ऐतिहासिक उल्लेख महत्वपूर्ण हैं । और अग्रवालों के लिए गौरवपूर्ण हैं। ___ कविने ग्रन्थ में काष्ठासंघ की भट्टारक परम्परा का उल्लेख किया है देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन,
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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