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प्रस्तावना
भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति (सं० १४६८ से १४८६), यश: कीर्ति १४८६ - १५१०, मलय कीर्ति ( १५१० से १५२५) भ० गुरणभद्र (१५२५ से १५४० ) ।
कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का भी उल्लेख किया है, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त और वीर कवि । इनमें समय की दृष्टि वीर कवि सब से बाद के (सं० १०७६ के) हैं ।
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साथ ही, इस ग्रन्थ में इससे पूर्व रची जाने वाली अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है । पासणाहचरिउ, मेहेसरचरिउ, सिद्धचवकमाहप्प, बलहद्दचरिउ, सुदंसरणचरिउ, धरण कुमारचरिउ । परन्तु प्रशस्ति में ग्रंथ का रचना काल नहीं दिया है ।
३६वीं प्रशस्ति 'सुकौशल चरिउ' की है। जिसमें ४ संधियां और ७४ कडवक हैं। पहली दो संघियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हुए तीसरी संधि में चरित्र का चित्रण किया है, और चौथी संधि में चरित्र का वर्णन करते हुए काव्यमय वर्णन उच्चकोटि का किया है । किन्तु शैली विषय वर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जीवन-गाथा को अङ्कित किया है । कथानक इस प्रकार है
इक्ष्वाकुवंश में कीर्तिधर नाम के एक प्रसिद्ध राजा थे । उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, अतएव वे साधु जीवन व्यतीत करना चाहते थे; परन्तु मन्त्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गृही जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षों तक उनके कोई सन्तान न हुई। उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई, वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनि से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा ? तब साधु ने कहा कि तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साधु बन जायगा । कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुआ। रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया; किन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजाने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सौंप कर जिन दीक्षा ले ली। राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणों को देखकर उसका नाम सुकौशल रखखा । रानी को पति वियोग का दुःख असह्य था, साथही पुत्रके भी साधु हो जाने का भय उसे आतंकित किए हुए था । युवावस्था में कुमार का विवाह ३२ राज कन्याओं से कर दिया गया और वह भोग-विलासमय जीवन बिताने लगा, उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था । माता इस बात का सदा ध्यान रखती थी कि पुत्र कहीं किसी मुनि को न देख ले । अतएव उसने नगर में मुनियों का आना निषिद्ध कर दिया था ।
एक दिन कुमार के पिता मुनि कीर्तिधवल नगर में प्राये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया । जव राजकुमार को यह बात ज्ञात हुई, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनुष्ठान करने लगा । माता सहदेबी पुत्र वियोग से अत्यंत दुखी हुई और परिणामों से मरकर व्याघ्री हुई ।
एक दिन उसने अत्यंत भूखी होने के कारण पर्वत पर ध्यानस्थ मुनि सुकौशल को ही खा लिया । सुकौशल ने समताभाव से कर्म- कालिमा नष्ट कर स्वात्म लाभ किया। इधर मुनि कतिधवल ने उस व्याघ्री को उपदेश दिया, जिसे सुनकर उसे जातिस्मरण हो गया, और अन्त में उसने संन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्ति धवल भी अक्षयपद को प्राप्त हुए ।
कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १४६६ में माघ कृष्णा १० मीं के दिन ग्वालियर में राजा डूंगरसिंह राज्य में समाप्त किया है ।