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________________ चन पंच-प्रशस्ति संग्रह ३७वीं प्रशस्ति 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ' की है, जिसकी रचना उक्त कवि रइधू ने की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय दिया हया है। पार्श्वनाथ के जीवन-परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं। परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नहीं होती। इस ग्रन्थ की रचना मणिपुर (दिल्ली) के निवासी साहू खेऊ या खेमचन्द की प्रेरणा से की गई है, इनका वंश अग्रवाल और गोत्र ऍडिल था। खेमचंद के पिता का नाम पजण साहु, और माता का नाम बील्हादेवी था । और धर्मपत्नी का नाम धनदेवी था, उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे। सहसराज, पहराज, रघुपति कौर होलिवम्म । इनमें सहसराज ने गिरनार की यात्रा का संघ चलाया था, साहू खेमचंद सप्त व्यसन रहित और देव-शास्त्र गुरु के भक्त थे। प्रशस्ति में इनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रंथ की पाद्यन्त प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था, और वे अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ अहिंसा, परोपकार और दयालुता का जीवन में आचरण करना श्रेष्ठ मानते थे। ___ ग्रंथ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइधू को द्वीपांतरों से आये हुए विविध वस्त्रों और पाभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर संतुष्ट किया था। ३८वीं प्रशस्ति 'बलहद्दचरिउ' (पउमचरिउ) की है, जिसके कर्ता उक्त कवि रइधू हैं। ग्रंथ में ११ संधियाँ और २४० कडवक हैं। जिनमें बलभद्र, (रामचन्द्र), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। ग्रंथ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वीं शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रंथ की शैली सीधी और सरल है, उसमें शव्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसंगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा प्रभाव भी नहीं है। राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है। इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रंथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं। यह ग्रंथ भी अग्रवालवंशी साहु बाटू के सुपुत्र हरसी साहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह से बनाया गया है। साहु हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रंथों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर, तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म-ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद-विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। प्रात्म-विकास करना उनका लक्ष्य था। ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुटुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है । ग्रंथ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। ३६ वीं प्रशस्ति 'मेहेसरचरित' की है, प्रस्तुत ग्रंथ में १३ संधियां और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है । जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही पावन रहा है । ग्रंथ की द्वितीय-तृतीय संधियों में प्रादि ब्रह्मा-ऋषभदेवका गृह त्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, बाहुबलि का तपश्चरण और कैवल्य प्राप्ति प्रादि का कथन दिया हुआ है। छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर, सेनापति मेघेश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्तीके पुत्र प्रकीतिके साथ युद्ध करना
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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