________________
प्रस्तावना
वर्णन दिया है। और ७वीं सन्धि में सुलोचना और मेघेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । और ८वीं से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्वभव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर क। तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का सुन्दर कथन दिया हुआ है। ग्रंथ काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है । ग्रंथ में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, घत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है। रसों में शृंगार, वीर, बीभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रंथ सरस और पठनीय बन गया है।
कवि ने ग्रंथ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृनियों का उल्लेख किया हैं। कवि चक्रवर्ती धीरसेन, देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद (ईस्वी सन् ४७५ से ५२५ ई०) जैनेन्द्र व्याकरण, वज्रसेन और उनका षड्दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय का ग्रंथ । रविषेण (वि० सं० ७३४) तथा उनका पद्मचरित, पुन्नाटसंघी जिनसेन (वि० सं० ८४०) और उनका हरिवंश, महाकवि स्वयंभू, चनर्मख तथा पुष्पदन्त, देवसेन का मेहेसरचरिउ (जयकुमार-सुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित।
ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कुलावतंश साह खेऊ या खेमसिंह के परिवार का विरतृत परिचय दिया हया है। और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोकों में आश्रयदाता उक्त साहू की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्न पद्य दृष्टव्य है ।
तीर्थेशो वृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो,
आदीशो हरिणंचितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभुः । नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशि: कैवल्यभाभासुरः,
क्षेमाख्यस्य गुणान्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः ॥ इस पद्य में ऋषभदेव के विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहाँ वे ऋषभदेव और शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये।
४० वीं प्रशस्ति 'सम्मत्तगुणनिधान' की हैं। ग्रंथ में ४ संधियां और १०८ कडवक दिये हुए हैं। जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या तेरहसौ पचहत्तर के करीब है। जिनमें सम्यक्त्व का स्वरूप, उनका माहात्म्य तथा सम्यक्त्व के आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषों की रोचक कथाएँ बहुत ही सुन्दरता से दी गई हैं। जो पाठकों को अत्यन्त सूचिकर और सरस मालूम होती हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ गोपाचल (ग्वालियर) निवासी साहु खेमसिंह के सुपुत्र साहु कमलसिंह के अनुरोध से बनाया गया है, और उन्हीं के नामांकित भी किया गया है। इस ग्रंथ की प्रथम संधि के १७वें कडवक से स्पष्ट है कि साहु खेमसिंह के पुत्र कमलसिंह ने भगवान आदिनाथ की एक विशालमूर्ति का निर्माण कराया था, जो ग्यारह हाथ ऊँची थी, और जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्वरूपी गिरीन्द्र के लिये वज्र समान, भव्यों के लिए शुभ गति प्रदान करने वाली, तथा दुःख, रोग, शोक की नाशक थी। अर्थात् जिसके दर्शन, चिन्तन से भव्यों की भव-बाधा सहज ही दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति की प्रतिष्ठा कर उसने महान् पुण्य का संचय किया था और चतुर्विध संघ की विनय भी की थी। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ-गत कथाओं का आधार प्राचार्य