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________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू का छठा आश्वास रहा जान पड़ता है। ग्रंथ का रचनाकाल वि० संवत् १४६२ है। ४१ वीं प्रशस्ति 'रिटुणेमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कडवक हैं तथा १९०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋषभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव और उनका पूर्वभव कथानक, बन्धु-बान्धवों से मिलाप, कंस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्युम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग, नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीड़ा यौवन, विवाहमैं वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्ति आदिका कथन दिया है। ग्रंथ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ की जीवन-घटनाओं का परिचय दिया हुआ है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे । और थे कृष्ण के चचेरे भाई । उन्होंने पशुओं के बंधन खुलवाए । और संसार की असारता को देख, वैरागी हो तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का सुन्दरतम मार्ग बतलाया। उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रैवतगिरि है जो प्राज भी नेमिनाथ के अतीत जीवन को झाँकी को प्रस्तुत करता है। तीर्थंकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है । इस ग्रंथ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था, जो पाठ की अशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका। ग्रंथ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साहु लोणा की प्रेरणा से हुई है। ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्तियों में साहु लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है । ___ कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रंथों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जैन रामायण-पद्मचरित) कमलकीर्ति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में हुआ था। साथ ही कवि ने अपने रिटणेमिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिए हुए हैं। महापुराण, भरत-सेनापति चरित (मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ ( यशोधरचरित ) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामोल्लेख किया है। ग्रंथ में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रंथ कब बना? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की १५ वीं शताब्दो के अन्तिम चरण या १६ वीं के प्रथम चरण में रचा गया है। ४२ वीं प्रशस्ति 'धरणकुमार चरिउ' की है जिसमें चार सन्धियां और ७४ कडवक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है । जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना आरौन जिला ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है । अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में साहु भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। ____ इस ग्रंथ की रचना कब हुई ? यह ग्रंथप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है। किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रंथ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रंथों के नामों में 'णेमिजिणिद चरिउ' (हरिवंश पुराण) का भी उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ उसके बाद बनाया गया है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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