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प्रस्तावना ४३ वीं प्रशस्ति 'जसहर चरिउ' की है जिसके कर्ता भी उक्त कवि रइधू हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं। जिनकी श्लोक संख्या९०० के लगभग है । ग्रंथ में योधेय देशके राजा यशोधर
और चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुआ है। ग्रंथ का कथानक सुन्दर और हृदय-ग्राही है और वह जीव दया की पोषक वार्तामों से ओत-प्रोत है। यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें प्राचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है। परंतु अपभ्रंश भाषा की यह दूसरी रचना है । प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है। यद्यपि भ० अमरकोति ने भी 'जसहर चरिउ' नाम का ग्रंथ लिखा था; परंतु वह अभी तक अनपलब्ध है।
इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साहु कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज की प्रेरणा से हुई है । अतएव ग्रंथ उन्हीं के नाम किया गया है । उक्त साहु परिवार ने गिरनार जी की तीर्थयात्रा का संघ चलाया या । ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। कवि ने यह ग्रंथ लाहड़पुर के जोधा साहु के विहार में बैठकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवित्तं'–पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है।
४४ वीं प्रशस्ति 'अरणथमी कहा' की है। इस कथा में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो घड़ी दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें; क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय-कमल संकुचित हो जाता है, अतः रात्रि भोजनके त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है:
"जि रोय-दलद्दिय दीण अरणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । दुहग्गु जि परियणु वग्णु प्रणेहु, सु-रयरिणहि भोयणु फलु जि मुणहु । घड़ी दुइ वासरु यक्कइ जाम, सुभोयण सावय भुजहि ताम ।
दिवायरु तेज जि मंदउ होइ, सकुच्चइ चित्तहु कमलु जिव सोइ।"
कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धी असंयम से रक्षा करना है, जिससे प्रात्मा धार्मिक मर्यादामों का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे।
४५ वीं प्रशस्ति 'अप्प-संबोह-कव्व' की है। यह एक छोटा सा काव्य-ग्रंथ है जिसे कवि ने प्रात्मसम्बोधनार्थ बनाया है। आत्म-हित को दृष्टि में लक्ष्य रखते हुए हिंसादि पंच पापों और सप्त व्यसनादि से
आत्म-रक्षा करने का उपाय बतलाया गया है-हिंसादि पापों का त्याग कर आत्म-कर्तव्य की ओर दृष्टि रखने का प्रयत्न किया गया है, जिससे मानव इस लोक तथा परलोक में सुख-शान्ति प्राप्त कर सके । ग्रंथ बहुत सुन्दर है, पर अभी तक अप्रकाशित है।
४६ वीं प्रशस्ति 'सिद्धांतार्थसार' की है, इस ग्रंथ का विषय भी सैद्धांतिक है और अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है । इसमें सम्यग्दर्शन, जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय-निरोध आदि आवश्यक क्रियाओं का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, अष्टकर्म, द्वादशांगश्रुत, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुप्रेक्षा दशलक्षणधर्म, और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस ग्रंथ की रचना वणिकवर श्रेष्ठी खेमसी साहु या साह खेमचंद्र के निमित्त की गई है । परंतु खेद है कि उपलब्ध ग्रंथ का अंतिम भाग खंडित है । लेखक ने कुछ जगह छोड़कर लिपि पुष्पिका की प्रतिलिपि कर दी है। ग्रंथ के शुरू में कवि ने लिखा है