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जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कि यदि मैं उक्त सभी विषयों के कथन में स्खलित हो जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना चाहिए । यह ग्रंथ भी तोमर वंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्य में रचा गया है।
४७ वीं प्रशस्ति 'वृत्तसार' नामक ग्रंथ की है। जिसके कर्ता कवि रइधू हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में छह सर्ग या ग्रंक (अध्याय) हैं। ग्रंथ का अन्तिम पत्र त्रुटित है जिसमें ग्रंथकार की प्रशस्ति उल्लिखित होगी। यह ग्रंथ अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है, जिनकी संख्या ७५० है । बीच बीच में संस्कृत के गद्य-पद्यमय वाक्य भी ग्रन्थांतरों से प्रमाण स्वरूपमें उद्धृत किये गये हैं। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का सुन्दर विवेचन है, और दूसरे अधिकार में मिथ्यात्वादि छह गुणस्थानों का स्वरूप निर्दिष्ट किया है । तीसरे अधिकार में शेप गुण-स्थानों का और कर्मस्वरूप का वर्णन है। चौथे अधिकार में बारह भावनाओं का कथन दिया हुआ है । पाँचवें अक में दशलक्षण धर्म का निर्देश है और छठवें अध्याय में ध्यान की विधि और स्वरूपादि का सुन्दर विवेचन दिया हुआ है। इस तरह इस ग्रन्थ में जैनधर्म के तात्त्विक स्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है । ग्रन्थ सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाश में आने वाला है।
४८ वीं प्रशस्ति 'पुण्णासव कहा कोश' की है। जिसमें १३ संधियां दी हुई हैं जिनमें पुण्य का आस्रव करने वाली सुन्दर कथाओं का संकलन किया गया है । प्रथम सन्धि में सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन है, जिन्हें सम्यक्त्वी को टालने की प्रेरणा की गई है । दूसरी संधि में सम्यक्त्व के निश्शंकितादि अष्ट गुणों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उनमें प्रसिद्ध होने वाले अंजन चोर का चित्ताकर्षक कथानक दिया हुआ है तीसरी संधि में निकांक्षित और निर्विचिकित्सा इन दो अंगों में प्रसिद्ध होने वाले अनन्तमती और उदितोदय राजा की कथा दी गई है । चौथी संधि में अमूढ़दृष्टि और स्थितिकरण अंग में रेवती रानी और श्रेणिक राजा के पुत्र वारिषेण का कथानक दिया हुआ है। पांचवीं सन्धि में उपगूहन अंग का कथन करते हुए उसमें प्रसिद्ध जिनभक्त सेठ की कथा दी हुई है । सातवीं सन्धि में प्रभावना अंग का कथन दिया हुआ है । पाठवीं संधि में पूजा का फल, नवमी संधि में पंचनमस्कार मंत्र का फल, दशवीं संधि में आगमभक्ति का फल और ग्यारहवीं संधि में सती सीता के शील का कथन दिया हुआ है । बारहवीं सन्धि में उपवास का फल और १३ वों संधि में पात्रदान के फल का वर्णन किया है । इस तरह अन्य को ये सब कथायें बड़ी हो रोचक और शिक्षाप्रद हैं।
इस ग्रन्थ का निर्माण अग्रवाल कुलावतंस साहु नेमिदास की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुआ है और यह ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्तियों में नेमिदास और उनके कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । और बतलाया है कि साहु नेमिदास जोइणिपुर (दिल्ली) के निवासी थे
और साहु तोसउ के चार पुत्रों में से प्रथम थे। नेमिदास श्रावक व्रतों के प्रतिपालक, शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान, दया और परोपकार आदि सत्कार्यों में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त समुदार था और लोक में उनकी धार्मिकता और सुजनता का सहज ही आभास हो जाता है, और उनके द्वारा अगणित मूर्तियों के निर्माण कराये जाने, मन्दिर बनवाने और प्रतिष्ठादि महोत्सव सम्पन्न करने का भी उल्लेख किया गया है । साह नेमिदास चन्द्रवाड के राजा प्रतापरुद्र से सम्मानित थे। वे सम्भवतः उस समय दिल्ली से चन्द्रवाड चले गए थे, और वहां ही निवास करने लगे थे, और उनके अन्य कुटुम्बी जन उस समय दिल्ली में ही रह रहे थे, राजा प्रतापरुद्र चौहान वंशी राजा रामचंद्र के पुत्र थे, जिनका राज्य विक्रम सं० १४६८ में वहां विद्यमान
१. णिय पयावरुद्द सम्माणिउ -पुण्यास्रव प्रशस्ति ।