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प्रस्तावना
१०१ था। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, परन्तु उसकी रचना पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिमचरण में हुई जान पड़ती है । क्योंकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलों से चन्द्रवाड़ को श्री सम्पन्नता को भारी क्षति पहुंची थी।
कवि ने ग्रंथ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में ग्रंथ रचना में प्रेरक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुये मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है
प्रतापरुद्रनृपराजविश्रुतस्त्रिकालदेवार्चनवंचिता शुभा । जैनोक्तशास्त्रामृतपानशुद्धधी: चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः ।। ३ सत्कवि गुणानुरागी श्रेयांन्निव पात्रदानविधिदक्षः ।
तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्दतु नित्येव नेमिदासाख्यः ।।४।। ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना आवश्यक है।
४६ वीं प्रशस्ति 'जीवंधर चरिउ' की है। जिसमें तेरह संधियां दी हुई हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है। और उनका फल प्राप्त करने वाले जीवंधर तीर्थंकर की रोचक कथा दी गई है । प्रस्तुत जीवंधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गंधर्वराउ (राज) नगर के राजा सीमंधर और उनको पट्ट महिषी महादेवी के पुत्र थे। इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि षोडश कारण भावनाओं का भक्तिभाव से चिंतन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर हुए । ग्रंथका कथा भाग बड़ा ही सुंदर है । परंतु ग्रंथ प्रति अत्यंत अशुद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है, जान पड़ता है प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासी नहीं था, प्रतिलिपि करवा कर पुनः जांच भी नहीं की गई।
इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहु कुन्थ दास हैं, जो सम्भवतः ग्वालियर के निवासी थे । कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहु को 'श्रवण भूषण' प्रकट किया है । साथही उन्हें आचार्य चरण सेवी, सप्त व्यसन रहित, त्यागी धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरंतर अवधारण करनेवाला और शुभ मती बतलाते हुए उन्हें साहु हेमराज और मोल्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है और कवि ने उनके चिरंजीव होने की कामना भी की है। जैसा कि द्वितीय संधि के प्रथम पद्य से ज्ञात होता है।।
२. चन्द्रवाड के सम्बन्ध में लेखक का स्वतन्त्र लेख देखिए । सं० १४६८ में राजा रामचन्द्र के राज्य में चन्द्र वाड में अमरकीति के षट्कर्मोपदेश की प्रतिलिपि की गई थी, जो अब नागौर के भट्टारकीय शास्त्र भंडार में सुरक्षित है । यथाअथ संवत्सरे १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण पंचदश्यां शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाट नगरे महाराजाधिराज श्रीराम चन्द देवराज्ये । तत्र श्री कुदकुदाचार्यान्वये श्री मूलसंघ गूजरगोष्ठि तिहुयनगिरिया साह श्री जगसीहा भार्याः सोमा तयोः पुत्राः (चत्वाराः) प्रथम उदसीह (द्वितीय) अजसहि तृतीय पहराज चतुर्थ खाहादेव । ज्येष्ठ पुत्र उदैसीह भार्या रतो, तस्य त्रयोः पुत्राः, ज्येष्ठ पुत्र देल्हा द्वितीय राम तृतीय भीखम ज्येष्ठ पुत्र देल्हा भार्या हिरो (तयोः) पुत्राः द्वयो. ज्येष्ठ पुत्र हालू द्वितीय पुत्र अर्जुन ज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं षट्कर्मोपदेश लिखापितं ।
भग्नपृष्ठि कटिग्रीवा सच्च दृष्टि रधो मुखं । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत ॥
-नागौर भंडार