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जन पंथ प्रशस्ति संग्रह 'जो भत्तो सूरिपाए विसणसगसया जि विरत्ता स एयो। जो चाई पुत्त दाणे ससिपह धवली कित्ति वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सत्थ-अत्थे विसय सुहमई हेमरायस्स ताओ।
सो मोल्ही अंग जायो ‘भवदु इह धुवं कुथुयासो चिरायो।' ६६वीं प्रशस्ति 'सिरिपालचरिउ' या सिद्धचक्र विधि' की है। जिसके कर्ता कवि रइधू हैं । इस ग्रन्थ में दश संधियां दी हुई हैं, और जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या दो हजार दो सौ बतलाई है। जिसमें चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथियों का सिद्धचक्रव्रत (अष्टाह्निका व्रत) के प्रभाव से कुष्ठ रोग दूर हो जाने आदि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्धचकृव्रत का माहात्म्य ख्यापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है। ग्रन्थ का कथाभाग बड़ा ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है । भाषा सरल तथा सबोध है। यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय और सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रप लिखे गए हैं। परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रंथ है। प्रथम ग्रंथ पंडित नरसेन का है।
____ प्रस्तुत ग्रंथ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहु बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहु के अनुरोध से बनाया है और उन्हीं के नामांकित किया है। प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अंकित है। कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रंथ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७ वीं संधि के निम्न पद्य से प्रकट है।
यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठंत्यादरात् मोहं मुञ्चति गच्छति स्व समयं धत्ते निरीहं पदं । पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा।
-सिद्धचक्र विधि (श्रीपालचरित संधि ७) १०६वीं प्रशस्ति 'सम्यक्त्व कौमुदी' की हैं। इसमें सम्यक्त्व की उत्पादक कथाओं का बड़ा ही रोचक वर्णन दिया हुआ है, इसे कवि ने ग्वालियर के राजा डूंगरसिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह के राज्य काल में रचा है, इसकी आदि अन्त प्रशस्ति से मालूम होता है कि यह ग्रंथ गोपाचल वासी गोला लारीय जाति के भूषण सेउसाहु की प्रेरणा से बनाया है। इसकी ७१ पत्रात्मक एक प्रति नागौर के भट्टारकीय ज्ञानभण्डार में मौजूद है उक्त अपूर्ण प्रशस्ति उसी प्रति पर से दी गई है । उस ग्रन्थ की पूरी प्रशस्ति वहां के पंचों तथा भट्टारक जी ने सन् ४४ में नोट नहीं करने दी थी, इसीलिए वह अपूर्ण प्रशस्ति ही यहां दी गई है। कवि की अन्य कृतियाँ
इन ग्रंथों के अतिरिक्त कवि की 'दश लक्षण जयमाला और 'षोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रंथ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय महापुराण, सुदसंगचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रंथ अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू हैं। 'सोऽहं थुदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकांत में प्रकाशित हो चुकी है।
कवि रइधू ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनाओं में ससम्मान उल्लेख किया है । जिन १. विशेष परिचय के लिए देखिए, अनेकान्त वर्ष ६ किरण ६ में प्रकाशित महाकवि रइधू नाम का लेख ।