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________________ प्रस्तावना पउमचरिउ,मेहेसरचरिउ, सम्मत्तगुणनिहाण, रिट्ठणेमिचरिउ, धरणकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, अणथमी कहा, अप्पसम्बोहकन्व, सिद्धतत्थसार, वित्तसार, पुण्णासवकहा, जीवंधरचरिउ, सिरिपालचरिउ और सम्यत्तकउमदी। __ इनमें पहला ग्रन्थ 'सम्मइ जिनचरिउ' है । जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जीवन-परिचय दिया हुआ है । यद्यपि उसमें कवि असग के महावीर चरित से कोई वैशिष्ट्य नहीं दिखाई देता; किन्तु फिर भी अपभ्रंश भाषा का यह चरित ग्रन्थ पद्धडिया आदि छन्दों में रचा गया है। ग्रन्थ १० संधियों और २४६ कडवकों में पूरा हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल कुलावतंश' गोयल गोत्रीय साहु सहजपाल के पुत्र और संघाधिप साहु सहदेव के लघु भ्राता साहु तोसउ की प्रेरणा से बनाया ५. 'अप्रवाल' यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है। जिसका विकास अग्रोहा या अग्रोदक जनपद से हुआ है । यह स्थान हिसार जिले में है। अग्रोहा एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था। यहां एक टीला ६० फुट ऊँचा था, जिसकी खुदाई सन् १९३६ या ४० में हुई थी। उससे प्राचीन नगर के अवशेष, और प्राचीन सिक्कों आदि का ढेर प्राप्त हुआ था। २६ फुट से नीचे प्राचीन पाहत मुद्रा का नमूना, चार यूनानी सिक्के और ५१ बे के सिक्के भी मिले हैं। तांबे के सिक्कों में सामने की ओर वषभ' और पीछे की ओर सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति है । सिक्कों के पीछे ब्राह्मी अक्षरों में-'अगोद के अगच जनपदस' शिलालेख भी अंकित है, जिसका अर्थ 'अनोदक में अगच जनपद का सिक्का' होता है । अग्रोहे का नाम प्रमोदक भी रहा है । उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की अोर संकेत करती हैं। (देखो, एपिग्राफिका इंडिका जि० २१० २४४ । इंडियन एण्टीक्वेरी भाग १५ के प० ३४३ पर अग्रोतक वैश्यों का वर्णन दिया है। कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते हैं। अग्रवाल शब्द के अनेक अर्थ हैं। किन्तु यहां उन अर्थों की विवक्षा नहीं है, यहाँ अग्रदेश के रहने वाले अर्थ ही विवक्षित है। अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते हैं। जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल जिन्दल, सिंहल आदि नाम हैं । अग्रवालों में दो धर्मों के मनाने वाले पाये जाते है । जन अग्रवाल और वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गए थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव; परन्तु दोनों में रोटी-बेटी व्यवहार होता है, रीति-रिवाजों में कुछ समानता होते हुये भी उनमें अपने-अपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है, हाँ सभी अहिंसा धर्म के मानने वाले हैं । उपजातियों का इतिवृत्त १०वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियां पूर्ववर्ती रही हों। अग्रवालों की जैन परम्परा के उल्लेख १२वीं शताब्दी तक के मेरे देखने में पाए हैं । यह जाति खूब सम्पन्न रही है। ये लोग धर्मज, प्राचारनिष्ठ, दयालु और जन-धन से सम्पन्न तथा राज्यमान्य रहे हैं । तोमर वंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राजश्रेष्ठी पौर प्रामात्य अग्रवाल कुलावतंश साह नट्टल ने दिल्ली में प्रादिनाथ का एक विशाल सुन्दरतम मंदिर बनवाया था, जिसका उल्लेख कवि श्रीधर अग्रवाल द्वारा रचे गये 'पार्श्वपुराण में, जो संवत् ११८६ में दिल्ली में उक्त नट्टल साहू के द्वारा बनवाया गया था और जिसकी सं० १५७७ की लिखित प्रति भामेर भंडार में सुरक्षित है । पौर अनेक मन्दिरों का निर्माण, तथा ग्रन्थों का निर्माण, और उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुनों, भट्टारकों प्रादि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इससे इस जाति की सम्पन्नता, धर्मनिष्ठा और परोपकारवृत्ति का परिचय मिलता है। हाँ, इनमें शासक वृत्ति अधिक पाई जाती है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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