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जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रंथ की कुछ संधियों में कतिपय संस्कृत पद्य भी पाये जाते हैं, जिनमें साह टोडर का खुला यशोगान किया गया हैं। उसे कर्ण के समान दानी. विद्वज्जनों का संपोषक, रूपलावण्य से युक्त और विवेकी बतलाया है।
कवि ने इस ग्रंथ की चौथी संधि के आदि में साहू टोडरमल का जयघोष करते हुए लिखा है कि वह राज्य सभा में मान्य था, अखण्य प्रतापी स्वजनों का विकासी और भ्रात-पुत्रों से अलंकृत था, जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट है
''नृपति सदसिमान्यो योह्यखण्डप्रतापः, स्वजनजनविकासी सप्ततत्त्वावभासी।
विमलगुण-निकेतो भ्रातृ पुत्रो समेतः, स जयति शिवकामः साधुटोडरुत्ति नामा ॥"
कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया, तब उसने उसे अपने शीश पर रखकर कवि माणिवयराज का खूब आदर सत्कार किया, उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त कंकण, कुंडल और मुद्रिका प्रादि प्राभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था। किन्तु आज गुणीजनों का निरादर करने वाले तो बहुत हैं किंतु गुण-ग्राहक बहुत ही कम हैं। क्योंकि स्वार्थतत्परता और अहंकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ अथवा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति अनादर की भावना जागृत हो जाती है। 'गुण न हिरानो किन्तु गुण-गाहक हिरानो की नीति के अनुसार खेद है कि आज टोडरमल जैसे गुण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है-वे थोड़े हैं । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५७६ फाल्गुन शुक्ला हवीं के दिन पूर्ण की है। कवि-परिचय
कवि माणिक्य राज जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए 'तरणि' (सूर्य) थे। इनके पिता का नाम बुधसूरा था और माता का नाम 'दीवा' था। कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी । ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनंदी थे। वे बड़े तपस्वी शील की खानि, निर्ग्रन्थ, दयालु और अमृतवाणी थे । इस ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में पद्मनन्दि के एक शिष्य का और उल्लेख किया गया है । जिनका नाम देवनन्दी था, और जो श्रावक की एकादश प्रतिमाओं के संपालक, राग-द्वेश के विनाशक, शुभध्यान में अनुरक्त और उपशम भावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिवंदन किया है।
३५वीं प्रशस्ति से लेकर ४६वीं प्रशस्ति तक १५ प्रशस्तियाँ, और ६६वीं और १०६वीं प्रशस्तियां क्रमशः निम्न ग्रन्थों की हैं, जिनके कर्ता कवि रइधू हैं। सम्मइजिनचरिउ, सुकोशलचरिउ पासणाहचरिउ,
मन्दिर का निर्माण कराया था। और उसके पूजन, संरक्षण एवं जीर्णोद्धार प्रादि के लिए उक्त कच्छप वंशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया था। (See Epigraphica India Vol 11 p. 237-240) किन्तु बाद में मराठा सरदादर अमरसिंह ने धर्मान्ध होकर इस जैन संस्कृति के स्तम्भरूप मन्दिर को भग्न कर दिया था। वि० सं० ११६० में जैसवाल वंशी साह नेमचन्द्र ने कवि श्रीधर अग्रवाल से 'वर्षमान चरित' नाम का ग्रन्थ बनवाया था। कवि लक्ष्मण जैसवाल ने जिनदत्त चरित्र की रचना सं० १२७५ में और अणुवइ रयण पईव की रचना सं० १३१३ में की थी। प्राज भी इस जाति में सम्पन्न और विद्वान व्यक्ति पाये
जाते हैं । इहीं सब कार्यों से इस जाति की महत्ता का भान होता है। २. "जइसवाल कुल सम्पन्नः दान-पूय-परायणः ।
जगसी नन्दनः श्रीमान् टोउरमल्ल चिरं जियः॥"