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________________ जैनमन्व-प्रशस्तिसंग्रह [ ५ कम्बु करंतु केम णवि लजमि, तणंदाह ज लिहइ लिहावइ, सह बिसेस पिय जणु किह रंजाम || ते संदहि जे भत्तिह भावहि । तो विजिणिव-धम्म-अणुराएँ, जे पुणु के बिहु पढहि पढावहि, हसिरि-सिद्धसेण-सुपसाएँ। ते णिय-पर-दुहु दूरे लुटावहि ॥ करमि सयं जि एलिणि-दल थिउ जलु, एयहो प्रत्थु के वि जे पयडहिं, अखहरेह णिरुवमु मुत्ताहलु ॥ ताण णिरंतर सोक्खहि सुहडहिं । पत्ता-जा जयरामें पासि विरहय गाह-पबन्धि । जे णिसुणेवि परिक्खा भत्तिए, साहम्मि धम्मपरिक्ख सा पददिया-अन्धि ॥१॥ ते जुज्जहि हिम्मल मइ सत्तिए । सयल पाणिवग्गहो दुहु हिज्जा, इस धम्मपरिक्खाए चउवागःहिट्टियाए वित्ताए हहरिषण सोम समिविए महि सोहिज्जा । कए पल्मो सन्धी परिसमतो ॥ संधि ॥ परहिय करणि विहंडिय-अंहहो, अन्तिम भाग: होउ जिणत्तणु चउबिह संघहो । इह मेवाड-देसि-जण-संकुलि, पयडिय बहु पयाव अरिवार, सिरिजहर-णिग्गय-धक्कड-कुलि । एंदउभूवह सहु परिवारें। पाव-करिंद-कुम्भ-दारण हरि, धम्म पवत्तणेण दुह-हारें, जाउ कलाहि कुसलु णामें हरि ॥ यंदउ पय बहुबिह-ववहारें। तासु पुत पर-णारि-सहोयर, पत्ता-संखए दुसहसु साहिउ सदरिया हिउ इउकह रयणु भगव्वह।। गुणगण-णिहि कुल-गयण-दिवायरु । जो हरिसेण धराधर उयहि गयणधर ताम जणउसु-भव्वहं । गोवड्ढणु णामें उप्पण्णउ । इय धम्म परिक्खाए चउबग्गाहिट्ठियाए बुह-हरिसेण जो सम्मत-रयण-संपुएबउ ॥ कयाए एयरसमो संधि समतो ॥ सन्धि ११ ॥ तहो गोबड्ढणासु पिय गुणवइ. जो जिणवर-पय णि वि पणबह । ६-जंबूसामिचरिउ [जंबूस्वामीचरित] कविवर वीर ताए जणिड हरिसेणे णाम सुउ, रचनाकाल संवत् १०७६ जो संजाउ विबुह-का-बिस्सुउ । आदिभाग:सिरि-चित्तहु चहवि प्रचलउग्शे, विजयंतु वीर-चरणग्गि-चंपए मंदिरंमि थरहरए । गवउ-णिय-कजें जिणहर-पउरहो । कलसु छलंतं तोए सुतरणि-लग्गत-बिंदु-छंकारा ॥१॥ तहिं छंदाजकार-पसाहिय, सो जयउ जस्स जम्माहिसेय-पय-पूर-पडुरिज्जतो। धम्मपरिक्ख एह ते साहिय ।। जणियहि मसि हरिसको कणयगिरि राइनो तइया ॥२ जे मज्मस्थ-मणुय प्रायरहि, जयउ जियो जस्सारुण-णह-मणि-पडिलग्ग-चपखु सह सक्खो। • ते मिच्छत्त भाउ अवगएणहिं । अणिइच्छिय सम्वावदुयवस्थ-परिकलिय-लोयणो जाम्रो ॥३॥ ते सम्मत्त जेण मलु खिजइ, समिरसु अवेय भामिय जोइसगण-जणिय-रयणि-विणि-संक। केवलणाणु ताण उप्पजइ ॥ इय जयउ जस्स पुरो परिचयं चारु सुरवाणा ॥॥ बचा-सहो पुणु केवलणाणहोणेव-पमाणहो जीव पएसहिं सुहडिउ, सो जयउ महावीरो माणाणल-हुणिय-रह सहो जस्स । बाहावी प्रवड प्राइसपर्वतउ मोक्ख-सुक्खु-फलुपयरियड ॥ णामि फुरद भुषणं एक्कं एक्खत्तमिव गयणे ॥२॥ विक्कमणिव-परिवत्तिय कालए, जयउ जियो पासदिव्य णमि-विणमि-किवाण-फुरियपडिविंबी गपए परिस सहस पडतालए। गहियाणं रूव-जुयलोव ति-जय-मणु सामियो रिसहो ॥६॥ इस उमण भविवजय सुहबरु, जबड सिरिपासणाको रेहह जस्संग शीलमाभियो। .. हम-पहियामासक्-सापर। प्रमियो सहि लिहिय शब-यशोग्य मणि-गम्भिहो पाकरप्पो
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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