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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाल इह अस्थि परम-जिण-पय-सरणु, प्रविय:गुडखेड विणिग्गउ सुहचरणु ॥१॥ सेटिठ सिरि तक्खडेणं भणियं च तो समस्थमाणेण । सिरिलाइबग्गु तहि विमल जसु, वनइ वीरस्स मणे कइत्त-करणुज्जमो जेण ॥१॥ कइदेवयत्तु निबुड्ढ कसु । मा होंतु ते कईदा गरुय पबंधे वि जाण निम्बूढा । बहु भावहिं जे वरंगचरिउ, रसभाव मुग्गिरंती वित्थरई न भारई भुवणे ॥२॥ पद्धडिया बंधे उद्धरित। संतिकई वाईविहु वएणुक्करि सेसु फुरिय-विण्णाणो कवि-गुण-रस-रंजिय-विउस सहं, रस-सिद्धि, संठियथो विरलो वाई कई एक्को ॥३॥ . . विस्थारिय सुद्धय वीरकह। विजयंतु. जए कइणो जाण वाणी अट्ठ पुब्बाये । भवरिय-बंधि विरइउ सरसु, उज्जोइय धरणियलो साहइ वटिव णिबडई ॥४॥ गाज्जा मंतिउ तारु जसु । जाणं समग्ग.सद्दो हज्झे हुउ रमइ मइ फडक्कम्मि । नच्चिज्जइ जिण-पय सेवयहि, ताणं पिहु उवरिल्ला . कस्स व बुद्धी परि फुरई ॥५॥ किउ रासउ अचादेवि यहि । इय जंबुस्वामिचरिए सिंगार वीर-महाकव्वे महाका सम्मत्त-महा-भर-धुर-धरहो, देवयत्त-सुअ-बीर-विरहए सरिणय-समवसरणागमो णाम तहो सरसइ-देवि लद्ध-बरहो। पढमो संधि ॥१॥ नामेण वरु हुड विणयजुनो, अन्तिम प्रशस्ति:संतुव गभब्भ पढमसुनो। तरिसाण सय-चउक्के सत्तरि-जुत्ते जिणिंद-वीरस्स। घत्ता-अखलिय-सर-सक्कय, कइकलिवि आएसिउ सुउ पियरें। णिब्वाण' उच्चएणे विक्कमकालस्स उप्पत्ती ॥१॥ पायय पब वल्लहु जणहो, विरइज्जउ किं इयरें॥५॥ विक्कम णिव कालाश्रो छाहत्तरि दस-सएसु वरिसाणं । अह माहवाम धण-कण दरसी, माहम्मि सुद्ध-पक्खे दसमी-दिवसम्मि संतम्मिः ॥२॥ नयरी नामेण सिंधु-बरिसी। सुणियं पायरिय - परंपराए वीरेण वीर णि हटें । तहिं धक्कड़-बग्गे वंस-तिलउ, बहुलत्थ-पसत्थ-पयं पवरमिणं चरियमुद्धरियं ॥३॥ मह सूयण णंदणु गुणणिलउ । इच्छे (इठे) दिणे मेहवण-पट्टणे घड्ढमाण, जिण-पडिमा णामेण सेठि तक्खडु वसई, तेणा वि महा कइणा वीरेण पर्याट्ठ-या पवरा ॥४॥ जस पडहु जातु तिहुयणि रसई। बहुराय-कज्ज-धम्मत्थ-काम-गोट्ठी-विहत्त समयरस । मह कइ देवदत्त हो परम सुही, वीरस्स चरिय • करणे इक्को संवच्छरो लग्गो ॥५॥ तें भणिउ वीरु-वय सुवण-दिही । जस्स कय-देवयत्तो जणणो सच्चरिय-लद्धमाहप्पो । चिरु कइहि बहुलगंधुद्धरिउ, सुह-सील सुद्धसो जणणी सिरिसंतुआ भणिया ॥६॥ संकिल्लहिं जंबुसामिचरिउ । जस्स य पसरण बयणा लहुणो सुमइ स सहोयरा तिरिण । पडिहाइ न वित्थरु अज्जु जणे, सोहजनकरणंफा जसइ-णामेत्ति विक्खापा ॥२॥ पडि भणइ वीरु सकियउ मणे ।। जाया जस्स मणिहा जिणवह पोमावइ पुणो बीया । भो भब्यबंधु किय तुच्छ कहा, लीलावइत्ति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ रंजेसह केमवि सिट्ठ सहा। पढम कलत्त' गरुहो संताण कइत्त विउवि वारोहो । एत्यंतरे पि सुणसीह सरहो, ‘विणय-गुण-मणि-णिहाणो तणउ तह ऐमिचंदो त्ति। तक्खडु कणिटु बोल्लइ भरहो । ... सो जयउ कई वीरो बोरजिणंदस्स कारियं जेण । : .. वित्थर संखेवहु दिग्व मुणी, पाहाणमयं भवणं पियर सेण मेहवणे ॥६॥ गुरु पारउ अंतरु बीरु सुणी। - अह जयउ जस्स णिब्वासो जसणाउ पंडिजति विक्खायो । त्तिा-सरि-सर-निवाणु-ठिउ बहु विजलु,सर सुन तिहमणिज्जा वीर जिणालय सरिसं चरियमिणं कारियं जेणाः ॥१०॥ धोवउ करयत्थु विमलु जणेण,हिलासें जिह पिज्जा ॥१॥ इति.जंबूसामिचरियं समत्त ।..
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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