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________________ वोरसेवामन्दिर-मन्थमाला एमारह संघच्छर-सएसु। पत्ता-रिसि गुरुदेव पसाए कहिउ असेसुविचरितु मई। तहिं केवलि चरिउ प्रमयच्छरेण । पउमकित्ति मुणि-पुगवहो देउ जिणेसह विमलमई ॥ णपणंदी-विरयउ वित्थरेण । जइवि विरुद्ध एवं णियाएबंध जिणेद-उक्समए । जो पहइ सुणइ भावइ लिहेइ। तहं वि तहय चलण कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ॥ सो सासय-सुहु अहरे लहेइ । रइयं पासगुराणं भमियापुहमी जिणालया पिट्ठा । पत्ता-रायणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहोणर-देवा सर बंदहो। एहिय जीविय-मरणे हरिस-विसाम्रोण पसास्स॥ देउ दिणमह हिम्मलु भवियह मंगलु वाया जिणवर इंदहो॥ सावय-कुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कहत। एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कार-फल पयासयरे एयाइ तिगिण जिणवर भवि भवि (महु) होड पउमस्स ॥ माणिक्कणंदि-तइविज्जसीसु-णयणंदिणा रहए गइंद, णव-सय-एउवाणुइए कत्तियमासे अमावसी दिवसे। परि वित्थरो सुरवरिंद थोत्ततहा मुणिंद सहमंडवंत-सुविमोक्ख लिहियं पासपुराणं करण णामं पउमस्स" वासे ठामे गमणमो पयफलं पुणो सयल साहणामावली इमाण सधिः अष्टादश ॥१८॥ इति पार्वनाथचरित्र समाप्त कय वएणणो संधि दो दहमो सम्मत्तो छ। संधि १२ ५-धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) बुध हरिषेण ४-पासपुराण (पार्श्वनाथपुराणं) पद्मकीर्ति रचनाकाल सम्बत् १०४४ रचनाकाल सOR आदि भागः आदि भागः सिद्धि-पुरंधिहि कंतु सुद्ध तणु मण-वयणे । चउवीस वि जिणवर सामिय, भत्तिए जिणु पणदेवि चिंतउ बुह-हरिसेणें ॥ सिव-सुह गामिय पविवि अणुदिणु भावें । मणुय-जम्मि बुद्धी किं किज्जइ, पुणकहं भुवण पयास हो, मणहरु जाइ कब्बु ण रहजा। पयडमि पास हो जणहो मज्म सहावें ॥3॥ तं करंत अवियाणिय पारिस, अन्तिम भागः हासु लहहिं भड रणि गय-पोरिस ॥ अट्ठारह संघिउ इय पुराणु, तेसट्टिपुराणे महापुराणु । च उमुह कब्व-बिरयणि सरंभुबि, सय तिरिण महोत्तर कडवयाई,णाणाविह छंद सुहावयाई ।। पुल्फयंतु अण्णाणु णिसुमिवि । तेवीससयई सेवीसयाई, अक्खरहं कहमि सविसेसयाई। तिरिण विजोग्ग जेण तं सीसइ, इउ एत्थु सत्थु गंथह पमाणु फुडु पयडु असेसु वि कय पमाणु॥ चउमुह-मुहेथिय ताव सरासह ।। सुपसिद्ध महापहु णियमधर ॥ जो सयंभू सो देउ पहाणउ, माथुरहं गच्छिउ पुहमिभरू। मह कयलोयालोय-वियाणउ। तहो चन्दसेणु णामेण रिसी, पुएफयंतु णवि माणुसु खुषह, बब-संजम णियमइ जाउ किसी ॥ जो सरसइए कयावि ण मुबह ॥ तहो सीसु महामहणियमधारि, ते एवंविह हडं जडु माउ, गयवन्तु महामइबम्भचारि । तह छन्दालंकार विहूणउ। रिसि माहउसेणु महाणुभाउ, पार्श्वपुराणकी अन्तिम प्रशस्तिके बेचार पवारंवा जिणसेण सीसु सुणु तासु जाउ ॥ भण्डारकी सं० १४७३ की लिखितमें नहीं पाये जाते, मा तहो पुग्व सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णु सीसु जिणु जासु चित्ति। रचनादि सम्बत्को लिए हुए होनेके कारण इस प्रसहितको ते जिणवर-सासर-भाविएण,का-विरहय जिणसेणहोमएण॥ यहां स्थान दिया गया है। गारवमय-दोस-विवज्जएण, अक्खर-पय-जोडिय लज्जिएण। -लेखकने भूलसे भामेर भण्डारकी पकिनच. कुकात विजणे सुबहत्त, होह, जई सुवाई भावह एत्य लोह ॥ वाक्योंको उक्त चार गाथाओं के ऊपर दे दिया है से मिली 'अम्हांकुकाइहिं किंपि बुत, खमिएम्बड सुपबहोतं णिरुत्त । गल्तीका परिणाम जान पड़ता है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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