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________________ जैनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह : साधारणु णामें स्व-कामु पुणु तीयउ सग-वसणा वहारि, जिण-भरिणय-सत्य-अत्यावहारि। जिग्गंथ-सवण-पय-भत्ति लीण, णामेण होलि उद्धरिय दीगु । पत्ता:तुरियउ गुण-पावरगु कम-सुह-भावरणु जसवल्ली माहारतउ। गुरिणयण-कय-मित्ति रिणरुवम भत्ती वारसिंघु एं कुसमसरु एयहं...."सगरीय सेण, सोमसिरि जणि गन्भु वेण । मि सत्त-वसण-णिरुवभ-चुएण, सत्थत्थ-परिक्खा-पायरेण, कुल-कुसुम-वियासणि सायरेण । रिणय-जस-धवलिय-महिवीढएण, सम्मत्त-पमुह-गुण-बूढएण। कहा वच्छल्ल-परायणेण, परियारिणय-सारासार एण। पंणेमिदास संघाहि वेण, सहु प्रायेरण पणमिय-सिरेण । एकहिं दिणि हर्ड संठिउ सलीगु, णुवि पत्तु तेण बहु करिवि माणु । भो रइधू बुह वड्डिय-पमोय, .......................। संसिद्ध जाय तुहु परम-मित्तु, तउ वयणामिय-पाणेण तित्तु । पइकिय पइट्ठ महु सुहमणेण, जाजय-पूरिय-धण-कंचणेण । पुणु तुव उवएसें जिणविहारु, काराविउ मई दुरियावहारु । पइं होंति"........." एकज्जि चिंता बढाइ पस । तुहु सकइत्तण फल कामघेणु, महु सासु रायमणु पुषु परेषु । पई विरयाई णाणा पुराण, सिद्धतायम जुत्तिए पहाण। पुरणासउ हर वयणास तु, सोहं बट्टमि इय चितं मज । 'सकयत्त [थापहि ] मझुणामु, बिह होइ प्रयलु सासउ सघामु । इय संघाहि व विष्णंति वाय, तहिं कालसुणेविशु मइ अमाय । संघाहिउ बुत्राउ वियसिएण, पइ जुत्तु भरिणउ सण यजुवेण। परकारणु वट्टइ दुसमु कालु, परदोस गाहि खलयण करालु। ते दूसहि कन्वु सहाव सुट्छु, कालाहि जेम वि सुखि विविदुदु । दुज्जण परगुण ण सहनिपाव, साणे विजि पुण्णिणम ससि-पयाव । जइ विहु एरिस ते तह वि कव्वु, तं उविणों (वरिणय ?) पेरिउ करमि भन्छु । सज्जण दुज्जणहं णिसग्गहोंति, गुण-दोसगाहि पयडिउण मंति । पुरणासव विरयमि पुष्ण होय, तव जसु वित्थारमि एत्यु लोय । पत्तातइया पडिवण्णाउ मइजिपत्थिउ एंतिउ कालुजि वंजिणिक बीसरिजं सुहावउं कय सुहभावउं एवहि मह मणिपक्कुषित अन्तिममागपत्तातहिं सोमबंसि पुण गुणहं णिहि जोइणिपरि संजोउचित तेजू णामें तयाहियउ बुद्धिए कणया पलु व पिरु ॥१॥ जिहं मुगिहुँ खमासुह गइ सहिज्ज, णं णामेण कल्ही तिहं तासु भज्ज । तहि उवरि उवण्यउ कुल-पयासु, जसु जसु वित्थरियउ दह-दिसासु । घरम्ह ? पहि हाणें विइउ लोड, घण-दाण-विहाणे बुह पमोह। साइति पिपयम तह विमल चित्त, एं सील-वित्ति सुहगइ-रिणमित्त । तहु सुउ जिण-पय-पयरुह-दुरेह, णिम्मल-मणु कमलावास-गेहु । परियण-सुह-पोसण-कप्पाखु, निरसियउ दुरासउ जि विवक्छ । पामेण साहुवोस मलेट,
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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