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________________ १८] पीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला घचा महाव कारत्तै उ जडत्तु, . .... सकरत महाभरु भव-भय-समहरु दुद्धरु होइ ज्याम्म णिक । स्वेणा एंगु वि गहिय-गत्तु। . . जो तहो रिणवाहइं पउप्रवगाहई सो कृविदीसह विरतुणकार मह भीरु वि जो माहवे प्रभग्गु, .. इय चितंति तह विफ्फुरियउं... रिउ सीस णिवेइय रिणसिय-खग्गु। भव्य विणउणिय माणसि सरियउँ अपमिद-कुल खल-बल-पलय-कानु, .. पत्यु-दीवि भारहं वरिसंतरि, . गुणियण-संदोह-समाहि-यालु। .. . विसइ कुसत्यलिदो रवि पहयरि । पउ-सायर-तडि संपत्त-णामु. . . चंदवाड पट्टण विक्खायउ, प्रतुलिय-साहस उद्दाम पामु । तियस णय तुएं (णिलय एं) बुह सुह दायउ । घत्ताकालेंदी सरि चउदिसु रुदउ, . जय-लच्छि-णिवासउ सुगुण-पयासउ चाएं कण्णु व विमलमाई एं भजइ पिउ पणय पमुदउ । सिरिराम-पभत्तउ प्रवजस-वत्तउ रुह व पयाय जरिणवा धरण-कण-कंचरण-सिरि-संपुष्ण उ, तहो रग्जि वरिणसर लद्ध-माणु, एं कयपुण्णु महाणरु घण्णउ । जिणधम्म-रसायण-तित्त-पाणु । सई चित्तु व परणरहं प्रगम्मो, सिरि पउमावइ पुरवाड वंसु, सम्वहं सुहयर एंदय धम्मो। उद्धरिउ जेण जय-लद्ध-संसु । वायरा व परिहा-सालंकिउ, जोइणिपुराउ चिरु वसिविभाउ, पर-विवाय-परिविंद-प्रसंकिउ । तोसउ णामेण विसुद्ध याउ । पंडुर पायारालय वित्तउ?, तहो एंदण [चउ] जणिया एंदरगु, एं रिणव स-वर-जसेण सुपवित्तउ । चारिदाण षा यड पंवितणु । धवलहरइं धवलई णं सुर-हर, जायाणंतचउक्क मुत्त, दाणुण्णय कर जाण रितीसर। . एं पुणु रिणमोय चारि वि ससुस्त । बावारापुरत्त जहि परिणवर, ... तइ पढमिल्लउ जस-भर-णिवासु, वसहि णिव णिव सम्माणेवर। संघाहिव णामें णेमिदासु। जहि जिबिंब समुज्जल पुज्जिय, भग्गेसरु-णिव-वावार-कज्जि, मंडपसिहरिधयावलि-सज्जिय । सुमहंत-पुरिस-पहु-रुद्द रज्जि । तोरण पलि पयार दुरिय-हर, जिण बिव-पणेय-विसुद्धबोह, सोहण पउर-विहारि मणोहर । णिम्माविवि दुग्गइ-पह-गिरोह । पत्ता सुपइट्ट कर विउ सुह-मणेण, तहि णिउ रिणवणीइं तरंगिणीहिं सायरु पवर रख साल। तित्थेस गोत्त बंधियउ जेरण। सिरि चाहुवाणि कुल-गयण-रवि सत्तित्तय गुण-पाल॥३॥ पुणु सुर-विमाण समु सिंह खेऊ, सिरि रामइंदु बडिय विवेउ, . णिय-पह-कर-पिहियउ-चंद-तेउ । दालिमोरिणहि-तरण-सेउ। काराविउ जि जिणणाह-भवणु, तं णिय-हत्ये जाणिवि समुत्यु, मिथ्यामय-मोह-कसाय-समणु । एंदरपुरज्जारुहु गुण-महत्यु । बुहियण-चिंतामणि जस-मयंकु, णिव पट्टय पप्पिउ वइरिम-मदु, बंदियण विद-युड खलप्रसंकु। महिवाणामेण पयावरूद। वहो एंदरपु पुणु बीयउ गुणिल्लु, गंभीरत्तणि रणि दुदरासि, परणारि परम्मुह सुद्ध सीलु। एं दिणवा सण्णय पयासि । प्रतुलिय-साहस सहसेक्क-धाम,
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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