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________________ प्रस्तावना वरिसारण सयचउक्के सत्तरिजुते जिणेंदवीरस्स | रिव्वारा उववण्णा विक्कमकालस्स उप्पत्ती ॥१॥ विक्कमरिणवकालाओ छाहत्तर दससएसु वरिसारणं । माहम्मि सुद्धपक्खे दसमी दिवसम्मि संतम्मि ||२॥ सुरियं प्रायरिय परंपराए वीरेण वीरणिद्दिट्ठ | बहुलत्थ पसत्यपयं पवरमिणं चरियमुद्धरियं ||३|| ६१ इस प्रकार यह ग्रन्थ जीवन-परिचय के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तियों के उल्लेखों और उनके सामान्य परिचयों से परिपूर्ण है। इसमें भगवान महावीर और उनके समकालीन व्यक्तियों का परिचय उपलब्ध होता है, जो इतिहासज्ञों और अन्वेषण - कर्ताओं के लिए बड़ा ही उपयोगी होगा । ग्रन्थ का लिपि समय यह ग्रन्थ- प्रति भट्टारक महेन्द्र कीर्ति अम्बेर या आमेर ( जयपुर ) के शास्त्रभंडार की है, जो पहले किसी समय जयपुर राज्य की राजधानी थी। इस प्रति की लेखक प्रशस्ति के तीन ही पद्य उपलब्ध हैं; क्योंकि ७६वें पत्र से श्रागे का ७७ वां पत्र उपलब्ध नहीं है; उन पद्यों में से प्रथम व द्वितीय पद्य में प्रतिलिपि स्थान का नाम-निर्देश करते हुए 'झुंझुना' के उत्तुंग जिन-मंदिरों का भी उल्लेख किया है और तृतीय पद्य में उसका लिपि समय विक्रम संवत् १५१६ मगसिर शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रति पांच सौ वर्ष के लगभग पुरानी जान पड़ती है। इस ग्रन्थ प्रति पर एक छोटा सा टिप्परग भी उपलब्ध है जिसमें उसका मध्यभाग कुछ छूटा हुआ है' । सातवीं और आठवीं प्रशस्तियां 'कथाकोष और रयणकरण्डसावयायार ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) की हैं, जिनके रचयिता कवि श्रीचन्द्र हैं । इन्होंने अपने को 'मुनि' 'पंडित' श्रौर 'कवि' विशेषरणों के साथ उल्लेखित किया है । इनकी दोनों कृतियों के नाम ऊपर दिये गये हैं । उनमें प्रथम कृति कथा कोष है, जिसमें विविध व्रतों के अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालों की कथाओं का रोचक ढंग से संकलन किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य के अनंतर ग्रंथकार कहते हैं कि मैंने इस ग्रंथ में वही कहा है। जिसे गणधरने राजा श्रेणिक या बिम्बसार से कहा था, अथवा शिवकोटि मुनीन्द्र ने भगवती आराधना में जिस तरह उदाहरणस्वरूप अनेक कथानों के संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किए हैं। उसी तरह गुरुक्रम से और सरस्वती के प्रसाद से मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ । मूलाराधना में स्वर्ग और अपवर्ग के सुख साधन का - अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थं चतुष्टयका - गाथानों में जो अर्थ प्ररूपित किया गया है, उसी अर्थ को मैं कथाओं द्वारा व्यक्त करूंगा; क्योंकि सम्वन्ध विहीन कथन गुरगवानों को रस प्रदान नहीं १ मन्ये वयं पुण्यपुरी बभाति सा झुंझणेति प्रकटी बभूव । प्रोत्तुंगतन्मंडन - चैत्यगेहाः सोपानवद्दृश्यति नाकलोके ॥ १॥ पुरस्सराराम जलप्रकूपा हम्र्म्याणि तत्रास्ति रतीव रम्याः । दृश्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददातिदानस्य विशालशाला ॥२॥ श्री विक्रमार्केन गते शताब्दे षडेक पंचैक सुमार्ग्रशीर्षे । त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धाः श्री जंबूस्वामीति च पुस्तकोऽयं ॥ ३॥
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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