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जैन पंच प्रशस्ति संग्रह था। कवि 'वीर' केवल कवि ही नहीं थे, बल्कि भक्तिरस के भी प्रेमी थे इन्होंने मेघवन' में पत्थर का एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्ट में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी की थी। कवि ने प्रशस्ति में मन्दिर-निर्माण और प्रतिमा-प्रतिष्ठा के संवतादि का कोई उल्लेख नहीं किया। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि ज़म्बू-स्वामि-चरित ग्रंथ की रचना से पूर्व ही उक्त दोनों कार्य सम्पन्न हो चुके थे। पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख
ग्रन्थ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का उल्लेख किया है, शान्ति कवि' होते हुए भी वादीन्द्र थे और जयकवि' जिनका पूरा नाम जयदेव मालूम होता है, जिनको वाणी अदृष्ट अपूर्व अर्थ में स्फुरित होती है।
यह जयकवि वही मालूम होते हैं, जिनका उल्लेख जयकीर्ति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। इनके सिवाय, स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त और देवदत्त का भी उल्लेख किया है। ग्रन्थ का रचनाकाल
भगवान महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम काल की उत्पत्ति होती है और विक्रमकाल के १०७६ वर्ष व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दशमी के दिन इस जम्बूस्वामी चरित्र का आचार्य परम्परा से सुने हुए बहुलार्थक प्रशस्त पदों में संकलित कर उद्धार किया गया है जैसा कि ग्रन्थप्रशस्ति के निम्न पद्य
से प्रकट है:
१ प्रयत्न करने पर भी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हो सका। २ सो जयउ कई वीरो वीरजिणंदस्स कारियं जेण । पाहाणमयं भवणं विहरूद्देसेण मेहवणे ॥१०॥ इत्येवदिणे मेहवणपट्टणे वड्ढमाण जिणपडिमा । तेणा वि महाकइणा वीरेण पट्ठिया पवरा ॥४॥
जम्बूस्वामी-चरित प्र० ३ संति कई वाई बिहु वण्णुस्करिसेसु फुरियविण्णाणो।
रस-सिद्धि संचयत्थो विरलो वाई कई एक्को ॥४॥ ४ विजयन्तु जए कइणो जाएंवाणं अठ्ठ पुव्वत्थे । उज्जोइय धरणियलो साहह वट्टिव्व णिम्बवडई ॥४॥
जम्बूस्वामी-चरित प्रशस्ति ५ माण्डव्य-पिंगल-जनाश्रय-सेतवाख्य, श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान छन्दोनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम ॥
-जैसलमेर-भण्डार ग्रन्थसूची ६ संते सयंभू एए वे एक्को कइत्ति विग्नि पुणु भणिया। जायम्मि पुप्फते तिणि तहा देवयत्तम्मि ॥
-देखो, जंबूस्वामिचरित, संघि ५ का मादिभाग।