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________________ ६२ जनपंच प्रशस्ति संग्रह करता, प्रतएव गाथाओं का प्रकट अर्थ कहता हूं तुम सुनो' । ग्रन्थकार ने देह-भोगों की प्रसारता को व्यक्त करते हुए ऐन्द्रिक सुखों को सुखाभास बतलाया है। साथ ही धन, यौवन और शारीरिक सौंदर्य वगैरह को अनित्य बतलाकर मन को विषय-वासना के आकर्षण से हटने का सुन्दर एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है और जिन्होंने उनको जीतकर प्रात्म-साधना की है उनकी कथा वस्तु ही प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय है। अहिलपुर में प्रसिद्ध प्राग्वाट कूल में समूत्पन्न सज्जनोत्तम सज्जन नाम का एक श्रावक था, जो धर्मात्मा था और मूलराजनृपेन्द्रकी गोष्ठी में बैठता था। अपने समय में वह धर्म का एक आधार था, उसका कृष्ण नाम का एक पुत्र था, जो धर्म कर्म में निरत, जन शिरोमणी और दानादिद्वारा चतुर्विध संघ का संपोषक था। उसकी 'राणू' नामक साध्वी पत्नी से तीन पुत्र और चार पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। इसी कृष्ण श्रावक की प्रेरणा से कवि ने उक्त कथाकोष बनाया था। प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया था। __ कवि श्रीचन्द्र ने अपना यह कथा ग्रन्थ मूलराज नरेश के राज्य काल में समाप्त किताथा । इतिहास से ज्ञात होता है कि मूलराज सोलंकी ने सं०६८८ में चावडा वंशीय अपने मामा सामंतसिंह (भूयड़) को मार कर राज्य छीन लिया और स्वयं गृजरात की राजधानी पाटन (अपहिलवाड़े) की गद्दी पर बैठ गया, इसने वि० संवत् १०१७ से १०५२ तक राज्य किया है। मध्य में इसने धरणीवराह पर भी चढाई की थी, तब उसने राष्ट्रकूट राजा धवल की शरण ली, ऐसा धवल के वि० सं० १०५३ के शिलालेख से स्पष्ट है। मूलराज सोलंकी राजा भीमदेव का पुत्र था, उसके तीन पुत्र थे, मूलराज क्षेमराज और कर्ण। इनमें मूलराज का देहान्त अपने पिता भीमदेव के जीवन काल में ही हो गया था और अन्तिम समय में क्षेमराज को राज्य देना चाहा; परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया, तब उसने लघु पुत्र कर्ण को राज्य देकर सरस्वती नदी १. गणहरहो पयासिउ जिणवइणा, सेणियहो पासि जिह गणवइणा ॥ सिवकोडि मुणिदि जेमजए, कह कोसु कहिउ पंचम समए । तिह गुरु क.मेण प्रहमविकहमि, नियबुद्धि विसेसु नेव रहमि । महु देवि सरासइ सम्मुहिया, संभवउ समत्यु लोय महिया । प्रामण्णहो मूलाराहणहें, सग्गापवग्गासुसाहणहें । गाहं सरियाउ सुसोहणउ, बहु कहउ प्रत्थि रंजिय जणउ । धम्मत्थकाम मोक्खासयउ, गाहासु जासु संठियउ तउ । ताणत्यं भणिऊणपुरउ, पुणु कहमि कहाउ कयायरउ । धत्ता-संबंध विहूणु सव्वुवि जाणरसु न देइ गुणवन्त हैं। तेणिय गाहाउ पयडिवि ताउ कहम कहाउ सुरणंत हैं। २. यं मूलादुद मूल यद गुरु बलः श्रीमूलराजोनपो, दन्धिो धरणी बराहन्टपति यद द्वि (द दि) प: पादपम् । मायातं भुवि कांदि शीकमभिको यस्तं शरण्यो दधी, दंष्ट्रायामिवरूढ़ महिमा को लो मही मण्डलम् ॥ -एपि माफिया इंडिका जि० १ पृ० २१ ३. देखो, राजपूताने का इतिहास दूसरा संस्करण भा० १, पृ० २४१ ४. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द दूसरा सं० पृ० १९२
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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